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________________ वचनदूतम् अम्बय-अर्थ – ( स्वामिन् ) हे प्रभो ! ( कमलमसृणः } कमल के जैसा कोमल (सव देह विवसनः वर्तते ) आपका शरीर निर्वस्त्र वस्त्र धारण किये हुए नहीं है इसलिये वह (फिट हुई ( सावश्यायान्) ओलों से युक्त (तान् ) उन (अविरलगतीन् ) निरन्तर बरसने वाली (प्रावृषेण्यान् ) वरसाल की (वारिविन्दुन्) पानी की बूँदों (को कथं शक्ष्यति) कैसे सहन कर सकेगा ? प्रतः ( साभो) हे साधी ! (गिरिवरमुवं मुक्वा) इस पर्वतस्थली को छोड़कर (साम्प्रतम्) आप इस समय (सोधम् ) मेरे महल में (एहि ) मा जावें ! * भावार्थ-स्वामिन्! ये वर्षाऋतु है । इसमें यविरलगति से पानी बरसेगा ही साथ में बोलों की भी वृष्टि होगी ही. अतः हमें ये चिन्ता है कि कमल जैसा कोमल आपका यह नग्न पारीर वर्षा कालीन इस स्थिति का सामना कैसे कर सकेगा । इसलिये अच्छा यही है कि आप इस समय यहां से मेरे भवन में पधारें । स्वामिन्! है ये सकलतन ही आपका बस्त्रहीन र्षो का ओ समय यह है, दामिनी कामिनी सीचमकेगी, जब नभस्तल में सो चकाचौंध में क्या भेगा, तब स्वयं सोचो चित्त चंचल बनेगा घिर आवेगो गगनभर में घनघटाएँ विकट जव बरसायेंगी अथकगति से नीर झोले अधिक वे जाओगे तब किधर उठकर ठौर भी कौन देगा होगी कोमल कमल जैसे देह की दुर्दशा ही ठंडी २ नगन तन पर बूंद जब २ पड़ेंगी होगी कैसे सहन उनकी ठंड, तब याद घर क ग्रावेगी, सो बस अब यही प्रार्थना नाथ ! ये है, मानो स्वामिन्! हठ मत करो घर सखी के पा छोड़ो गिरि को मिलकर वहां श्रावणोत्सव मनाओ ।। ५६ ।।
SR No.090527
Book TitleVachandutam Uttarardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Shastri
PublisherPrabandh Karini Committee Jaipur
Publication Year
Total Pages115
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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