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________________ वचनदूतम चिन्तां त्यक्त्वा निजहृवि हले ! धैर्यमाधाय दुःखं, सोढव्यं से निपतितमिदं स्वामिवैराग्यजन्यम् इत्थं तावद्युवतिततिभिर्बोधिताऽप्यस्तबुद्धिः कृत्वाssकन्दं पतति भुवि सा निः सहाया लतेव ॥। ४४ ।। छोड़ में अन्य अर्थ - हे नाथ ! जब उससे वहां की नव ब ऐसा कहती है कि () हे सखि ! (चिन्ता) किल्ला को (म् प्रावाय) धीरज धारा करके (स्वामिवैराग्यजन्यम्) स्वामी के वैराग्य हो जाने से उत्पन्न हुए (निपतितम्) आकस्मिक (इदम् दुःखम् ) इस दुःख को (ते गोढव्यम्) तुझे महता चाहिये, (इत्थम् ) इस प्रकार ( युवतिततिभिः बोधिता अपि) नवीन वधुनों के द्वारा समझाई गयी भी वह (श्रस्तबुद्धिः ) नासमझ की जैसी (प्राकन्दं कृत्वा) माक्रन्दन करके (निःसहाया लता हव) सहारे बिना की लता के समान (सा भुवि निपतति ) वह जमीन पर गिर पड़ती है । छोड़ो चिन्ता श्रव, हृदय में हे सखी ! धैर्य बांधों, जैसे भी हो मु-सहन करो दुःख जो आपड़ा है "स्वामी ने है तजकर मुझे बीच में व्याह के ही ५५ भावार्थ- हे सखि ! श्रम तुम चिन्ता मत करो जो होना था वह तो हो ही गया है । र्यपूर्वक अकस्मात् प्राये हुए इस दुख को अब सहन किये बिना कोई चाह नहीं है। इस प्रकार से नवोद्वाभों द्वारा समझाये जाने पर भी वह नहीं ममभतीप्रत्युत दुःख की अधिकता के बढ जाने के कारण छिन्नलता सम सहारे बिना कीलता जैसी जमीन पर गिर पड़ती है । दीक्षा लेली नहि श्रत्र रही मैं कहीं को, कहूं क्या" सो यो चिन्ता तुम मत करो जो हुआ, भूल जाओ आगे क्या है अब सु करना चित्त में ये विचारो ग्रच्छा होगा सब तरह से क्यों दुखी हो रही हो जो हुआ है वह सब भले के लिये ही हुआ है ऐसी शिक्षानवयुवतियां ज्वों उसे हैं सुनाती - त्यों ही वो तो क्षितिपतित हो - छिन मूलालता सो
SR No.090527
Book TitleVachandutam Uttarardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Shastri
PublisherPrabandh Karini Committee Jaipur
Publication Year
Total Pages115
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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