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वचनदूतम्
मुक्त्वेमा कु कृमिकुलवितां श्वापदाढ्यामयोग्याम्,
धीन होनः सप्तरसहितां रक्षकः रिक्तदेशाम् । हिस्र जो नवपरिवतो कान्त ! में कान्तमाह
पस्त्वं शस्त्यं सुजननिचितं द्वारपालः सुरक्षम् ।।३।। मन्वय-अर्थ---(कान्त) हे स्वामिन् ! (कृषिकुलचिताम्) कीड़ों के समूह से भरी, (श्वापदायाम् ) जंगली जानवरों से युक्त (अयोग्याम्) आपके रहने के अयोग्य (दीनः हीनः) दीन हीन मनुष्यों के लिये (सतनसहिताम्) सदा हितकारक और (रक्षक: रिक्तदेशाम्) रक्षक जहां एक भी जन नहीं है । ऐसी (इमां कुमुक्त्वा ) इस भूमि को-जगह-को-छोड़कर भाप (कान्तम् ) मनोहर (मे) मेरे (पस्त्य) घर परराजमंदिर में-जो कि (शस्त्यं, सुजान निचितम्) हर प्रकार की सुविधाजनक साधन सामग्री से युक्त होने के कारण पारामप्रद है और सुजनों से भरपूर है तथा (द्वारपाल: सुरक्षम्) द्वारपालों द्वारा सुरक्षित है (एहि) पधारो।
भावार्थ हे नाथ ! यह स्थान मैकड़ों प्रकार के विषैले डांस, मच्छर, कृमि प्रादि कों द्वारा भरपूर है, यहां शिकारी भयङ्कर जंगली जानवर रहते हैं । हीन दीन जन जो कि प्राक्रमणकारी जानवरों से प्रापकी रक्षा नहीं कर सकते निवास करते हैं । अतः ऐसे इस चित्तक्षोभी गिरिप्रदेश को छोड़कर मेरे राजभवन में जहां कि सुजनों से आपका सम्पर्क रहेगा. चित्त में वहां किसी भी प्रकार की अशान्ति नहीं रहेगी, चौबीस घन्टे जहां रक्षक-पहरेदार-प्रापकी सेवा में उपस्थित रहेंगे आप पधारो । स्वामिन् ! छोड़ो इस गिरि-मही को न ये बासयोग्य,
है, है क्योंकि प्रचुर इसमें कोटराशि विषैली । है चारों ही तरफ इसमें जंगली प्राणियों की
टोली, होगा नहि रजनि में प्रापका कोइ त्राता दीनों की है वसति दुखियों की यहां एक मात्र
जो है ऐसी नहिं कर सके आपकी देहरक्षा; सो मानों हे यदुकुलपते ! छोडके आप इस्को
प्रामो मेरे भवन सुजनों-रक्षकों से घिरा जो, नाथ ! आपका इस गिरी-ऊपर वास नहीं सुखप्रद जचता क्योंकि विर्घले कीड़ों का ब्रज यहां सदा फिरता रहता ।