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अननदृतम्
होती है (तथा) उसी तरह (स्वामिना त्रिप्रमुक्का नाही मान्या न भवति) अपने प्राणनाथ के द्वारा छोड़ दी गई नारी-पत्नी-भी अच्छी नहीं मानी जाती है ।
भावार्थ – हे नाथ ! चन्द्र से बिहूनी रजनी जैसी सुहायनी नहीं लगती, कमल से विहीन तालाब की मनोरमता जैसी फीकी-फीकी लगती है एवं दान से रहित लक्ष्मी जैसी निंदित होती है उसी प्रकार पति से छोड़ दी गई स्त्री भी लोगों की दृष्टि में अच्छी नहीं मानी जाती है ।
स्वामिन्! जैसे विधु विन नहीं यामिनी है सुहाती ।
कासारश्री विन कमल के हैं न जी को लुभाती । लक्ष्मी भी तो वितरण बिना श्रेष्ठ मानी न जाती,
वैसे ही स्त्री न स्वपतिमुक्ता भाग्यवंती कहाती || १४ ||
जैसे नाथ ! रात चन्दा विन सूनी-सुनी लगती है, बिना कमल के सरवर शोभा फीकी- फीकी दिखती है । वितरण बिना इन्दरा की भी महिमा नहीं चमकती है, इसी तरह परिक्ता नारों की गरिमा न दमकती है ।। १४ ।।
सर्वोत्कृष्टं तब पुरिवं नाथ ! सौम्याऽऽकृतिस्ते
बेहे सरक्षं प्रबलसुभटेरप्यजम्यं व शौर्यम् । तस्यां स्वामिनपगतधृतौ त्वं भयेषैर्यधाता,
प्रायः सर्वो भवति करुणावृत्तिरार्द्रान्तरात्मा ॥ १५ ॥
अन्य --- (नाथ) हे स्वामिन् ! (इदं तव वयुः) यह आपका शरीर (सर्वोत्कृष्टम्) सब शरीरों को अपेक्षा उत्कृष्ट है (ते आकृतिः सौभ्या) आपकी प्राकृति सोम्य हैं (देहे सत्यं) देह में अपूर्व बल है, (प्रसतुभः अपि जयं च शौर्यम्) बलिष्ठ सुभट भी जिसका सामना नहीं कर सकते ऐसा आपका शौर्य है। अतः (स्वामिन् ) हे स्वामिन् (पगतधृतौ तस्यां वं धाता भव) धैर्य से सर्वथा रहित उस राजुल को क्योंकि ऐसा ही देखा जाता है कि (प्रायः) प्रायः ( सर्वो भवति करुणावृत्तिः आन्तरात्मा) समस्त साधुजन दयालु और सदा मृदुहृदय
आप धर्म बंधाने की कृपा करें
वाले ही होते हैं, कठोर हृदय वाले नहीं होते ।