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वचनदूतम् नास्तीदं ते शिखरिशिखरं ध्यानयोग्यं यतस्त्वाम्,
दष्ट्वा वस्त्रव्यपगततनु, स्वीयकार्य विधातुम् । यान्तो भिल्लाह पथि गतं धर्ममार्गानभिज्ञाः,
विघ्नीभूतं विविविधिभिस्तायिष्यन्ति मत्त्वा ॥५॥ मन्वय-अर्य-हे नाय ! (इदं शिखरिशिखर) यह पर्वत प्रदेश (ते ध्यानयोग्य नास्ति) प्रापको ध्यान करने योग्य नहीं है । (यतः) स्योंकि (स्वीपकार्य) अपने कार्य को (विधातुम्) संपादित करने के लिये (यान्तः) जाते हए (भिल्लाः) भील लोग जो कि (धर्ममार्गानभिज्ञाः) धार्मिक मार्ग से अपरिचित होते हैं (इह पथि) इस पर्वतीय मार्ग पर (वस्त्रव्यपगततनु स्वाम् ) वस्त्रविहीनशरीर वाले नग्नआपको (दृष्ट्वा) देख कर (विघ्नीभूतं मत्वा) भौर अपने कार्य की सिद्धि में विघ्नरूप मान कर (विविविधिभिः) !- को अनेक से शामि , प्रा हिंड करेंगे।
भावार्थ- हे नाथ ! यह पर्वतीय प्रदेश मापके ध्यानयोग्य इसलिए भी नहीं है कि धार्मिक मर्मादा को नहीं जानने वाले शबरजन इसी मार्ग से होकर अपने कार्य के संपादनार्थ निकलते रहते हैं, अतः जब वे यहां से होकर निकलेंगे और आपको नग्न बैठा हुअा ज्यों ही देखेंगे तो अपने कार्य की सिद्धि में मापका दिखना विनरूप मानकर वे प्रापको अनेक प्रकार से प्रताडित करेंगे। स्वामिन् ! मानो यह गिरिमही है नहीं ध्यानयोग्य,
आते जाते प्रतिदिन यहीं से सभी भील क्योंकि, प्रातः होते प्रथम निजका कार्य संपादनार्थ
देखेंगे वे जब वसन से रिक्त नंगा तुम्हें तो मानेंगे वे अपशकुन सर आपको हा ! अधर्मी
सोचेंगे यों नहिं यब सधेगा जरा भी हमारा धारा कार्य, प्रधमकवले मक्षिका पात जैसा
नंगा बैठा यह दिख पड़ा, कार्य में विघ्न होगा सो ऐंठेंगे कुपित बनके पाप पैं, पापको वे
देंगे गाली, भय नहीं करेंगे बकेंगे यथेच्छ सा.गे वे हर तरह से प्रौ दयाहीन होकें।