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________________ बनाना ऐसो भोलो बनकर सखो चाहती है ? न वे हैं -- तेरे कोई अब समझले और तुभो न उनको कोई है. यों पतिविरह का दुःख क्यों मानती है माने है तो सह अब उसे धर्य से हे सखी तू ।। ४२।। नाथ ! आपके विरह जनित वह दुख से पीडित हो करके । रात दिवस है रोती रहती सब कुछ भूल बिसर करके सो हमसे देखी नहिं जाती उसकी ऐसी हालत को हृदय हमारा भर पाता है सो समझाती यो उसको चिन्ता किसकी तू करती है क्या उनमे तेरा नाता नाता तो अब छूट चुका है, झूठा क्यों रचती खाता नारी का भूषण लज्जा है, सो ऐसे व्यवहारों से प्राचरणों से प्रौर अनोखी ऐमी ऐसी बातों से होती है वह घराशायिनी प्रतः छोड़ इस ममता को पतिपत्नी का भाव ध्वस्त कर धरले सजनी ! समता को ।।१२।। - . - - - सर्व मुक्त परमिह तया त्वं न मुक्तोऽसि नाथ ! वाक्यं मो नो परति हरये "नाथ ! कुत्रासि वक्ति" । बच्मः किञ्चिविरम सरसो भो दयासो! प्रोष्य, तामिस्वाऽत्र त्वमनुचरतास्सर्वमा तपस्याम् ॥४३।। अन्वय-अर्भ (नाथ) हे नाथ ! (इह) इस समय (तया सर्वम् मुक्तम्) उसने सब कुछ छोड़ दिया है (परम् त्वम् न मुक्तः असि) पर तुम्हें नहीं छोड़ा है (नः वाक्यम् । हम लोगों की बात को वह (हृदये नो घरति) चित्त में ही नहीं लेनी है । (नाथ ! कुत्र असि बक्ति) केवल हे नाथ ! तुम कहां हो यही कहती है । (बच्मः) अनः हम प्रापसे यही कहते हैं कि (किश्चत् तपसः विरम) कुछ समय तक तपस्या में प्राप विराम ले लें और (भो दयालो) हे दयालो! (ताम् प्रबोध्य) उसे समझाकर फिर (अत्र इत्वा) यहां आकर के (स्वम्) पाप (सर्वभद्राम्) सर्वमंगलकारिंगी (तपस्याम्) तपस्या की (अनुचरतात) पाराधना करें।
SR No.090527
Book TitleVachandutam Uttarardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Shastri
PublisherPrabandh Karini Committee Jaipur
Publication Year
Total Pages115
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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