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राजू ल की रागात्मकता, प्रसाय-भावना, निराशा एवं विफलता का कवि ने सका चित्रग कर उसे अन्त में प्राध्यात्मिकता की ज्योति-किरण से पालोकित किया है । इस प्रकार राम के उदय और विराग में अवसान का यह काम निश्चित ही स्तुत्य है । श्रृंगार का पर्यवसान शांत में है। महाकवि कालिदास की काव्य सृष्टि का यह स्वारस्य शास्त्रीजी की काव्य-साधना का भी मूलाधार है।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि समस्यापूत्ति में कल्पनाओं को बिठाना पड़ता है । मूल पद का अर्थ-परिवलन करना पड़ता है। इसलिये समस्या पूति का काव्य केवल प्रतिभा-साध्य न होकर व्युत्पत्तिसाध्य हो जाता है। इस सीमा के कारण शास्त्रीजी ने जहां तक सम्भव था वहीं तक, मेघदत के अन्तिम पद का प्रयोग किया है । ललितोचित-सत्रिदेश-रमणीय प्रसन्न पदावली उनके काम का गुण है। निराश रामुल की दुर्दशा के मिश्रण में कवि ने अत्यन्त भाषा काव्य का प्रणयन किया है। हिन्दी में अर्थ एवं पद्यानुवाद देकर इस वस्तु को अधिक उपयोगी बनाया है। शास्त्रीजी की अदभ्य सारस्वत साधना का सौरभ संदा संस्कृत साहित्य को सुरभित करता रहे । इसी मंगल कामना के साथ 'वपनदूत' काव्य के प्रास्वादन के लिये सहृदयों को आमंत्रित करता हूँ।
दि. १४-१२-८१
रामचन्द्र द्विवेदी
मधेः श्री मूलचन्द्रस्य, काम्यं भयं नणं तथा । कालिदासयथा याते, रागे वैराग्यमाथितम् ।। वाग्दत्तराजुलंबधूनां सांत्र भावनिवेदितम् । श्री नेमिनायवराग्यं स्यापयत् पूर्णतां गतम् ।। तबेलकमलं काय शान्तं हृद्यं गुणान्वितम् । विपत्रस्य कवे माद् यशसा सह मुक्तये ॥ गणेयन्तः श्रियं दीनी वाग्देवी मतिर श्रिताः। यावज्जीवमधीयांमाः कवयः संस्कृते श्रताः ।। तरेव साधितो धर्मः सप्रित्यपि प्रवर्तते । येन विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा सुरभारती ।।