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________________ वचमदूराम प्रतः पधारो नाथ ! कृपा कर दुखिया के उस मन्दिर में दुःखित बन्धुजनों से जो है परिवृत्त बाहर अन्दर में होगा भला भापका होगा जीवन उसका हराभरा कष्टापतित जनों का रक्षक होता जग में संत बरा ॥५१।। अल्मायास भवति सुलभं यच्च तत्पूर्वमेत्र, संप्राप्तव्यं विबुधजमता मोसिमा प्रवास्ति मुक्तिश्चेत्ते ननु प्रियतमा सा महडिस्तपोभि हक्लेशविविविधिभिः कष्टसाध्यश्च लभ्या ।।५२॥ प्रश्वष-अर्य-हे नाथ ! (यत्) जो वस्तु (मल्पायासै:) थोडे से परिश्रम द्वारा (सुल में भवति) साध्व-प्राप्त होने योग्य होती है ( तत् पूर्वम् एव संप्राप्तव्यम् ) उसे पहले ही प्राप्त कर लेनी चाहिये ( एता नीति विजुषजनता प्रक्ति) इस नीति को प्राजजन कहते हैं. सो (चेत्) यदि (ते) प्रापको (मुक्तिः ननु प्रियतमा) मुक्ति ही अत्यन्त प्रिय है तो (सा) वह (देहक्लेशैः) शरीर को कष्टकारी (विविधविधिभिः) अनेक प्रकार की विधियों वाले ऐसे (कष्ट साध्यैः) कष्टसाध्य (महद्भिः तपोभिः) बड़े ६ तपों द्वारा (लभ्या) प्राप्त होती है । भावार्य हे नाथ ! जो प्राशजन हैं. वे तो ऐसा ही कहते हैं कि जो थोड़े से परिश्रम करने से प्राप्त होने योग्य हो तो उसे पहिले ले लेनी चाहिये । परन्तु प्राप तो उल्टा ही कार्य कर रहे हैं । देहक्लेशकारी कष्टसाध्य ऐसे तपों द्वारा जो बड़े परिश्रम से प्राप्त होने वाली है उसे भाप प्राप्त करने के लिये कटिबद्ध हो गये हैं मोर जो अल्पायास साध्य है उसे छोड़ रहे हैं, सो ऐसा नीतिविरुद्ध कार्य करना अापको शोभा नहीं देता है । स्वामिन् ! जो हो सुलभ अल्यायास से वह प्रथम हो ले लेना ही उचित है यों नीतिवेत्ता बताते मुक्ति श्री है यदि प्रभु ! तुम्हें सर्व श्रेयस्करी तो है वो ऐसी सुलभ नहिं जैसी सुलम्या सखी है वो तो नाना नियम ब्रत की साधना से सधे है १ सब से श्रेष्ठ प्यारी (२) तो वो ऐसी सुलभ नहीं है है जिसी ये दुलारी
SR No.090527
Book TitleVachandutam Uttarardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Shastri
PublisherPrabandh Karini Committee Jaipur
Publication Year
Total Pages115
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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