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वचनदूतम्
मोहोद्भूतां पुनरपि कथां कथ्यमाना व्यथायाः राजमतिरपि तथा तां निरस्यैवपूचे सर्वे ते जनक ! बहुशो जीव संबंधबंधाः
जाताः पूर्व भवति नितरां तत्र मग्नो विमुग्धः ॥८१॥
अन्वय-अर्थ-- राजुल के चेतावनी भरे वचनों को सुनकर उसके पिता उग्रसेन नरेश को बहुत वेदना हुई और उन्होंने उस अपनी वेदना को राजुल के मन को परिवर्तित करने के लिये कहा तब - ( मोहोन्द्र तां व्यधायाः कथ्यमानां कथा ) मोहजन्य अपनी ही गई व्यथा की कथा को सुन करके (राजोमातः अपि) राजुल ने भी (तथा तां निरस्य एवं ऊचे) उसी प्रकार से उसका निराकरण करके इस प्रकार से कहा (जनक) है तात ! (एते सर्वे जीवसंबंधबंधाः पूर्व बहुशः जाताः ) ये समस्त जीव के साथ हुए संबंघरूप बंधन पहिले कई बार हो चुके हैं (तत्र विमुग्धः मनो भवति) उनमें जो मोही प्रारणी होता है वही मग्न होता है ।
भावाथ — "किस किस को याद कीजिये किस किस को रोइये, ये सब अथिर जगजाल है निज हित को सोचिये" इसी नीति के अनुसार राजुल ने जब पिता द्वारा प्रकट की गई मोहजन्य व्यथा की कथा को सुना तो उसने पिता को संबोधित किया और कहा - पिताजी आप किस मोहममता के जाल में फँसे हुए हैं. ये सब सम्बन्ध तो अनादिकाल से होते चले आ रहे हैं. ये स्थिर नहीं हैं. सबः अस्थिर है. ज्ञानी जन इनमें मग्न नहीं होते हैं, मग्न तो मोहीजन ही होते हैं । अब मुझ से प्राप मोह को दूर कर दो ।
श्रत
राजुल की सुनकर कथा उग्रसेन भूपाल "बेटी दीक्षा का नहीं है यह तेरा काल" मोहजन्य मन की व्यथा प्रकट करी तस्काल तेरे बिन मेरा सुते ! होवेगर क्या हाल मोह भरे अरु व्यथा से सने सुने उद्गार राजुल ने जब जनक के, बोली समता बार ये जग के नाते अथिर हुए प्रमंती बार धिर इनमें कोई नहीं रहा यही संसार यह दुर्गम घाटी बड़ी, ज्ञान, विबेक, विचार ये ही साधन जीवको करते उससे पार ।। ८१ ।।
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