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वचनदूतम् पाशा लध्वा प्रमुवितमना मातृपादारविन्द
नस्वा साध्वी निकटमगमन्मोहजालं विमुच्य प्रार्यादीक्षा स्वकुशलमयीं प्राप्य सस्या तयाऽथ
गत्वा नुस्खा गतभवपति ने मिनाथो ववन्दे ॥२॥
अन्वय-अर्थ-(प्राज्ञां लब्ध्वा) पिता को प्राज्ञा पाकर राजुन ( प्रमुदितमनाः ) बहुत प्रसन्न चित्त हुई (मातृपादारविन्दं नत्वा) और माता के चरण कमलों को नमन करके एवं (मोहजालं विमुच्य) मोहजाल को छोड़ करकं वह ( साध्वानिकट अंगमन् । प्रार्यिका माता के पास गई. वहां उसने(स्वकुशलममी आर्यादीक्षा प्राप्य)अपनी कुशलता कारक प्राधिका की दीक्षा धारण करली(प्रथ) इसके बाद (तया सत्या) उस सती ने (गत्वा नुत्वा) जाकर के और स्तुति करके (गत भत्रपतिः) पूर्वभवों के पतिदेव (नेमिनाथः) नेमिनाथ की (ववन्दे) वन्दना की।
भावार्थ--पिता की आज्ञा प्राप्त कर प्रसन्न चित्त हुई राजुल ने माता की भी प्राज्ञा प्राप्त की और उन्हें प्रणाम करके फिर वह सब से मोहपरि शक्ति हटाकर एक साध्वी माता के निकट पहुंची वहां पहुंच कर अपने भर को सुधारने वाली प्रायिका दीक्षा धारण करली और प्रन्त में उसने नेमिनाथ की स्तुतिपूर्वक वन्दना की।
भात तात को पाशा पाकर राजुल मन में मुक्ति हुई जाते समय मातृपदपंकज की रज से घूमरित हुई मोहजाल को वमनतुल्य नज पहुंची वह साध्वी के पास भवभव कुशल विधायक दीक्षा धरी प्रायिका की सोल्लास दीक्षित होकर फिर वह साध्वी नेमिनाथ के निकट गयी कर संस्तवन नमन कर शत शत उनको फिर वह तृप्त भयो ।।
धम्या माताऽवनिलिरसाधु प्रसेतोऽपि धन्यः
प्राचीदिग्धज्जगति महिता सा शिवा धन्यधन्या धन्यस्तातो नरपतिमरिणः सस्समुद्राभिधानः
धन्या राजीमतिरपि तथाऽमाविनी धर्मपत्नी ।।३।।