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नमनदूतम्
प्राशाओं पर पानी फिर गया. वह उनके पीछे २ गिरती पडती गिरनार पर पहुंची उनके निकट अपनी हार्दिक व्यथा जिस रूप में उसने प्रकट की वह “पूर्व वचन दूत" में अङ्कित की गई है । इस "उत्तर वचनदूत' में नेमि के निकट राजुल को सनियों ने
और उसके जनक ने जो कुछ कहा वह प्राङ्कित किया गया है । कवि कुलभूष्ठ कालिदास ने जो मेघदूत की रचना की है, उसके अन्तिम पाद को लेकर उसे इस वचनदूत की कथावस्तु के साथ जोडा गया है ।
राजल ने उसकी सखियों ने और पिताश्री ने उसके गिरि पर जाकर नेमिनाथ से कहे भाव जो थे मन में साहित्यिक भाषा में उनको सजा-सजाकर यहां किया भलित, कल्पित हुए उन्हों को "वचनदूत" यह नाम दिया कालिदास के मेवदूत से अन्त्यपाद को लेकर के करी समस्या पूर्ति यथामति मैंने "बचनदूत" रच के ।।८।।
धन्यास्ते गुरवः पान्तु येषां सत्कृपया मया । लब्धबोधेन संदृब्धं नव्यं काव्यमिदं मुदा ।।१।।
अम्बादिदासान्तपदोपगूढान् विद्यागरुन् नौमि भृशं सुभक्त्या । येषां पवित्राश्चरणारविन्दान् संसेव्य मे धी रभवत् पवित्रा ॥२॥
शुष्कघासनिभं शास्त्रं तख्यिं परिशीलितम्, मद् गवाक्षीरवच्चतत्काव्यं नव्यं तयोद्गतम् ।।३।।
कायनिमणिकर्तृत्व केवलं मयि युज्यते सगुणं निगुगं बैतत् विद्भिः परीक्ष्यताम् ।।४।।
साध्वी प्रकृत्या मनधाभिधाना परनी मदीयाऽस्ति मनोऽनुकुला। शुश्रूषया तत्कृतयैव सम्यग्वद्धोऽप्यहं काव्य मिदं चकार ।।५।।