Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 108
________________ वचनदूतम् धन्यवादालि चास्य तद्गुणाकृष्टमानसः । तदुपकारशुद्ध यथं प्रयच्छामि पुनः पुनः ।।६।। ईदृशी गृहिणी भूयात् सर्वेषां सद्गृहाश्रमे । यद्धर्मसेवनात्स्वर्गः गृहे चापि विज़म्भते ॥७॥ भावार्थ-जिनके परम अनुग्रह से ज्ञान प्राप्त करके मैंने इस नवीन काव्य की रचना की है ऐसे वे गुरुजन मेरी सदा रक्षा करते रहें ।।१।। जिसके पवित्र चरणारविन्दों की सेट कर मेरी बुद्धि प्रतिवन निद्या तुम इम्बादास जी" को मैं भक्तिपूर्वक बार बार प्रणाम करता हूं।।२।। मेरी गो ने (वारणी एवं बुद्धि ने) शुष्कघास के जैसे तर्क शास्त्र का परिशीलन किया है सो उससे दुग्ध के जैसा बट्ट नवीन काव्य निःसृत हुआ है ।। ३।। काव्य का निर्माण कर्तृत्व तो मुझ में प्राता है पर यह सगुण है कि निर्गुण है इसकी परीक्षा विद्वानों के हाथ में है । [४३ प्रकृति से साच्ची मेरी वर्भपत्नी “मनवा" न मुझे इस वृद्धावस्था में भी मेरी अच्छी सरह सेवा करके इस काव्य के निर्माण के लायक बल प्रदान किया |५|| अतः मैं उसके इस सद्गुण से आकृष्ट होकर उसे बार २ धन्यवाद देता हूं ।।६।। ऐसी गृहिणी सब के घर में होवे कि-जिसके धर्म सेवन के प्रभाव से प्रत्येक गृहस्थ के घर में भी स्वर्गीय प्रानन्द बरसता रहता है ।।७।। कतु : प्रशस्ति:मस्ततिवर्षायषि में चिकीर्षया प्रेरितस्य णे नुष्या विहिते स्मिम् खनु काव्ये भवेत्त्रुटि कापि संशोध्या ।।१।। राजस्थानप्रान्त वसता क्षेत्र मया महावीरे । पाण्डित्यपदे, नव्यं काव्यं दब्धं स्वरुच्यतत् ।।३।। दिगम्बरक्षेत्रमिदं प्रसिद्ध पुरातन सातिशयं समृद्धम् । देशान्तरायातविशिष्ट विशै भक्त्यान्वितैः श्राद्धचयैश्च सेव्यम् ।। ३ ।।

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