________________
बचनदूतम्
होता वही जो होना है अनहोना पुत्रि ! नहि होता ऐसा जान भूल जा उसको जैसा वह तुझ को भूला यों होगा तो सदा रहेगा चित तेरा फूला-फूला ।।७।।
श्रुत्वोक्ति साऽवनतवदनोवाच वाचं अगष्य
नेमि मुक्त्वाऽमरपतिनिभं नैव वाञ्छामि कान्तम् चिन्ता कार्या न मम भवता नेमिनाऽहं समदा
जातो वासौ मनसि च मया संवतो भतृ भावात् ।।७।।
अन्वय-प्रर्थ –(उक्ति श्रुत्वा) पिता की बात सुनकर (अवनतवदना सा उवाय) नीचा मह करके बह कहने लगी (वाचं श्रष्ष) पिता जी ! मेरी बात भाप मनी ( नेमि भुक्त्वा अमरपतिनिभं कान्तं नव वाञ्छामि) मै नेमी के सिवाय अमरपतिइन्द्र-तुल्य भी व्यक्ति को अपना पति बनाना नहीं चाहती हैं। (भवता मम चिन्ना न कार्या) पाप मेरी चिन्ता न करें (अहं नेमिना समुहा) मुझे नेमो ने करण कर लिया है और (असौ भत भावात मनसि मया संवृतः जातः) मैने भी उन्हें पतिरूप में अपने मन में वरमा कर लिया है।
भावार्थ-पिताश्री की बात मुक्कर सजाते हुए राजुल ने प्रत्युत्तर के रूप में उनसे कहा-पिता जी ! पाप मेरी प्रोर से निश्चिन्त रहें मैं नेमी की हो चुकी हैं
और नेमी मेरे हो चुके हैं । अब इन्द्रतुल्य भी मानव मेरे हृदयासन पर विराजमान नहीं हो सकता है।
मै अनाथ हूं नहि, सनाथ हूं, साथ नाथ ने नहीं दिया मुक्ति-रमा ने जादू करके मुझ से उनको छुड़ा लिया सात ! श्राप मत चिन्ता मेरी करो न मुझवो समझायो नाथ हृदय में बैठा मेरे मुझको अब मत भरमाप्रो वे हैं मेरे मैं हूं उनकी भले मुक्ति के चक्कर में फंस गये हैं वे पुनः मिलेंगे मुझे मुक्ति के ही घर में हम दोनों तब वहां रमेंगे अन्याबापसुखोदधि में नहि अवतार हमारा होगा इस निस्सार भवोदधि में तातवचन सुनकर राजुल ने अपना ऐसा हार्दिक भाव कहा तात से, और कहा फिर नय-विवाह का रहा न बाव ।।७।।