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वचनदूतम कल्ये दीक्षाममपि च पितः ! धारयिष्यामि ननम्
प्राज्ञां दत्वा सफलय मनोभावमेवं विदित्वा कार्या कार्य पितृपदसमाध्यासिना नात्र बाधा
__ शोक मोहं विगलय न मे, कोऽपि. कस्यापि नाहम् ।।७७॥
अन्वय-अर्थ-(पितः) हे लात ! (नूनं अहम् अपि कल्ये दीक्षां धारयिष्यामि) निश्चित रूप से मैं भी कल दीक्षा धारण करूंगी (एवं विदित्वा प्राज्ञां दत्वा मनो भावं सफलय) इस मेरे निश्चय को जानकर आप प्राज्ञा प्रदान करके मेरे मानसिक विचार को सफलित करें। (पितृपदाध्यासिना अस्मिन् कार्ये बाधा न कार्या) पिता के पद पर विराजमान हुए आपको मेरे इस काम में बाधा नहीं हालना चाहिये (शोक मोहं बिगलय) श्राप शोक एवं मोह को दूर कीजिये (में कोऽपि न प्रहं कस्पापि न) अब मेरा कोई भी नहीं है और मैं भी किसी की नहीं हूं।
भावार्थ-पिता जी मैं नियम से दीक्षा लगी. आप मुझे सहर्ष प्राज्ञा दे, और मेरे निश्चय को सफल करें. श्राप मेरे पिता है. इस नाते अाप को मेरा मोह छोड़कर इस कार्य में रुकावट नहीं करनी चाहिये. अब इस भव में न कोई मेरा है और न मैं किसी की हूं।
कल प्रातः मैं अब नियम से तात ! दीक्षा धरूंगो
__ घर छोडूगी स्वजन परजन को सभी को तगी ममता मेरी अब सब तजो और आज्ञा मुझे दो
धाराधन कर सफल हो जन्म मेरा तिया का मेरे मन के उदित भावों को घटायो न रोको
है पालन के रतनत्रय के योग्य यह तात ! मौका स्वामी के ही चरण पथ 4 में चलूगी खुशी से
___ आवेंगे जो विविध दुःख भी तो उन्हें मैं सहूंगी होऊंगी ना विचलित कभी स्वीयकर्तव्य से मैं
आयेंगी ना सुखद घर को याद रातें न बातें होंगे मेरे बनभवन में संगसाथी मृगादि ।
छोड़ो मेरी जनक ! ममता प्राप रोको न रोप्रो ।।७७।।