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बचतदूतम्
साथी दोनों हम तुम कई हैं भवों के, परन्तु
दुकर्मो ने इकदम इसी जन्म में है करायास्वामिन्! ऐसा विलग हमकों आपको क्या कहूं में, कर्मो के तो क्षपण करने हेतु, दैगम्बरी ये-दीक्षा ले के गिरि पर चढे आप तो तोड नाता,
स्वामिन् ! में हूं परभवगत स्नेह के ही अधोना सो रागी ये मन तुम विषे है अभी भी प्रसक्त
हो जाता है श्रवण करने आपकी क्षेमवार्ता ||२६||
अशुभ कर्म ने ही हम दोनों को इस भव में अलग किया 'उसके नाशन हेतु आपने तो मुर्तिवाना धार लिया पर परभव से चला श्रा रहा राग न श्रम तक अस्त हुआ, मेरा नाथ ! आपसे - सोमन कुशलक्षेम यह पूछ रहा ।। २६ ।।
मुक्त्वा मां त्वं ननु समभवः स्वार्थसिद्ध यं तपस्वी,
कृत्येऽस्मिंस्ते भवति महती वाच्यताऽतो ब्रवीमि । श्राशंसार्हं चरितमपि चेल्लोकदृष्ट्या विरुद्धम्,
सेव्यं तत्र भवति भवता मर्शरणीयं वचो मे ॥३०॥
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श्रन्वय अर्थ – नाथ ! ( मां मुक्त्वर) मुझे छोड़कर जो (त्वं तपस्वी समभवः) आप तपस्वी हुए हो सो (स्वार्थसिद्धये) अपने मतलब की सिद्धि के लिये हुए हो, इसलिये (अस्मिन् कृत्ये ) इस आपके कार्य में (ते) श्रापकी (महती वाच्यता) बड़ी निया हो रही है, (अतः ब्रवीमि ) सो इस सम्बन्ध में मेरा ऐसा कहना है कि (आगंमा मि चरितं लोकविरुद्ध चेत्) प्रशंसनीय भी चरित्र यदि लोक के विरुद्ध हो (तत् भवना सेव्यं नो भवति) बहू थापके द्वारा सेवनीय नहीं है। ऐसी ( मे वचः मरणीयम् ) मेरी को विचार करना चाहिये । बात का
छोडा स्वामिन्! स्वहित करने के लिये जो मुझे है । सो निंदा है इस विषय में आपकी नाथ ! भारी । देखो सोचो उचित कहती नाथ ! मैं तो यही हूं