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बचनदूतम
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घ्यनीति शानिरा प्रकटयति-- उक्त्ववं सा विगलितकृती रोदनक्लान्तचित्ता
दर्श दर्श तब प्रतिकृति दीर्घ निश्वासदग्धा स्मारं स्मारं भवभवगतं गत्वरप्रकृष्टानुरा
माहारं वा अलमपि विमो ! नव गृह्णाति सम्पक ॥४१॥ मन्दार-अर्थ- हे नाथ ! (एवम् स प्रकार कहकर (सा। वह (रोदनक्वान्नचिना) रो रोकर अपने चिल को मलिन बना लेती है। और (विगचितवृतिः) धैर्यबिहीन बन जाती है। (सव प्रतिकृति दर्श-दर्श) अापकी छवि को देख देख कर यह (दीनिश्यामदग्धा) लम्बी लम्बी सांसेवीचने लगती है और (भन भवमनं त्वत्प्रकृष्टानुगसम्) प्रत्येमा भय के आपके प्रकृष्ट अनुराग को (स्मारं स्मारम्) वारंबार माद करके वह (दिभो) हे स्वामिन् ! (पाहारं जलं अपि) पाहार को एवं पानी को भी (सम्यक) यच्छी तरह (नव गृहानि) नहीं ग्रहण करती है। स्वामिन् ! ऐसा कहकर सती धर्य खो बैठती है
. श्री रोती है दुखितचित हो, देखके आपकी यो। फोटो प्यारो, तुरत उसकी तीन हो श्वास जाती
बारंबार स्मरण करती आपकी पूर्वप्रीति सो वो अच्छी तरह भगवन् ! चैन से बैठती न
खाती पीती, अनमन बनी ही सदा बो रहे है "जाते जाते कुछ ना कहा क्यों हुए यों कठोर"
निर्मोही भी जब जब कहीं देश को हे क्यम्ये ! - जाता है तो खबर करता है सभी वन्धुओं को
देखो ऐसी यह स्वजन की है उपेक्षा मली क्या ? १४१॥ ऐसा कहकर ना ! सती वह वैयंगलित हो जाती है, रोने लगती क्लान्तचित्त हो श्रास बाल बढ़ जानी है बार २ दह नाथ ! आपकी प्रतिकृति को जब नवनी है को माने पर हाथ लगाकर भाग्य कोसने लगती है पूर्व भत्रों को स्नेहस्मृति से प्राकुल-व्याकुल बह होती सब कुछ भूल बिसर कर केवल मन ही मन रहनी गेनी,