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वचनतम
अन्यय-नयं-हे नाथ ! राजुल की दुरवस्था देखकर उसकी सखियां जब उसे यों समझाती हैं - वि हे सत्य ! (त्वम्) तू (का) वामलों में विभोः अंगम्) अपने नानी के शरीर के सौन्दर्य को (हरिगानयने नेश्साम्यम्) मृगों के नयनों में उनके नेत्रों की समानता बो (शरलौर्णमास्या शशिभूति) शरत् की पूर्णिमा के चन्द्रमंडल में (प्रास्ययायाम्। उनके मुग्न की शोभा को (द्विरेफे कुषलान कत्रान्) भ्रमर में उनके काले केशों को और (क्षितिभूति तिम्) पर्वत में उनके धैर्य को (पष्टम् ईक्षस्व) स्पष्ट रूप से देख, तब (मा अाह) वह कहती है हिन्न ! क्वचिदपि एकस्मिन्। बड़े दुःख की बात तो यह है कि कहीं पर भी एक जगह (मत्स्वामिसाहश्यम् न अम्ति) मेरे स्वामी के अंगायिकों का साहश्य नहीं है. अतः धर्य कैसे धारण करू ।
गाध ! विरह से व्याधित हुई जब सखियां उसको लखती हैं "विरह अग्नि में जलती क्यों तू' नब उससे यों कहती हैं समझातीं वे धार २ हैं इस प्रकार के कथनों से उपमित करके नाथ ! आपके अंगों को उपमानी से राजुल ! तेरे भत्ता का है कमलतुल्य सुकुमार शरीर उसे निरखकर मन समझाले अपना, मत हो सखी ! अधीर हरिणों के नयनों जैसे हैं उनके दीरध अनिमारे नेत्र, निरखकर मन समझाले, क्यों उनही पर दम मारे. शरतकाल की राका के विधु जैसा है उनका मानन । उसे निरखकर मन समझाले दुःखित मत बन तू हर क्षण भ्रमर तुल्य हैं उनके काले केश, देखकर भ्रमरों का मन को तू अपने समझाले क्यों करती है फिकरों को, चले गये तो जाने दे दे, चिन्ता उनकी अब कैसी जो विरक्त हो गया सखी तो उसके प्रति रति क्यों ऐसी, वे तो अचल अचल से हैं, तू चंचलचित क्यों होती है उनकी चिन्ता में पड़कर क्यों जीवन अपना खोती है सुन करके सखियों की ऐसी सौख सयानी कहती है यह शोभा है यष्टिरूप में नहि समष्टि में दिखती है उनके जैसे वे ही हैं नहि उनसा कोई दिखता है दुर्लभ है सौभाग्य जगत में वह न हाट में बिक्रता है ।।४।।