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बचनद्रुतम्
नाथ ! प्रापके अनुपमनामामृत के सेवन करने से तन उसका अब तक रक्षित है कालकलेवा बनने से फिर भी तो वह मान रही है विरह-तपन के झोकों सेसंतापित होने के कारण भालों की ज्यों नौकों से भिदे हुए की तरह अभी तक हाय ! स्वयं को मरी हुई नाथ हीन कुररी के जैसी भूख प्यास से छीण हुई देखो विधि का दुविलास जो प्राप्त हुई को पा न सकीतुमसी निधि को, और न तुमसे प्राणनाथ को रिझा सकी सुन्दर था भवितव्य सखी का तुमसा उसको सुमन मिला अब कैसा यह बदल गया जो गिरि पर जाकर हाय ! खिला पोर परासापा: उसको कला छोड़ दिया तोड़ दिया कँगना को परिणय से भी मुख को मोड लिया क्या यों करना तुम्हें उचित था, कुछ भी तो सोचा होता शानी तो परपीडा कारक बीज कभी भी नहीं होता राजुल के मनमन्दिर के हो तुम्ही देवता एक विभो ! उसकी श्वासोच्छासों के हो तुम्ही एक अाधार प्रभो ! मदनतुल्य भी चाहे कोई और दूसरा जन, मन कोउसके, हरण न कर सकता है, क्योंकि किया अपने तन कोउसने तुम्हें समर्पित, सो अब उसके संरक्षण का मार नाथ ! प्राप पर ही निर्भर है, फिर अपना करना उद्धार ॥४॥
स्वीकारार्हा भवतु भवता साऽधुना नाथ ! मन्ये,
नो वेवस्या असुभिपतनं पातको स्यास्त्वमेव । स्वापेऽपि त्वां मनसि निहितं वक्ति कि माममुञ्चः,
न हि स्वामिन् ! कमिव मनाग्भाषसे सांप्रतं नो ॥४६॥
प्रत्यय-प्रयं-हे नाथ ! ( मन्ये ) मैं तो यही मानती हूं-कि ( सा ) उसे ( अधुना ) इस समय में (भवता) तो पापको (स्वीकाराही भवतु) स्वीकार कर लेना चाहिये ( नो चेत् ) यदि आप ऐसा नहीं करते हैं ( तहि ) तो ( अस्याः प्रसुनिषतनं