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वचनदृतम्
यस्याः सार्धं परिणयविधिः सप्तवासप्तपद्या संपद्मः स्यात् भवति स बरो नीतिरेषाऽऽगमोक्ता तेनामा चेत् कतिपयभवोद्भूतपत्नीत्व रामः
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पर्यायेऽस्मिन् भवति न सुते ! कार्यकारी स हेयः ||६६ ||
अस्य प्रथ- हे बेटी ! (वस्याः सार्धं परिणयविधिः सप्तवासप्तपद्या संपन्नः स्यात् ) जिसका जिसके साथ जैवाहिक संबंध सात प्रकार की सप्तपदी के द्वारा संपन हो गया होता है ( स वर ) वहीं उसका वर होता है ( एवा थागमोक्ता नीति:) ऐसी यह आगम में नीति कही गयी है, ( चेत् तेन श्रमा कतिपयभवोद्धतपत्नीत्वरागः ) यदि उसके साथ तेरा पूर्व के कई भवों से चला आ रहा जो पत्नीपने का संबंधरूप राग है ( सः अस्मिन् पर्याये सुते ! कार्यकारी न भवति-हेचः ) वह इस पर्याय में कार्यकारी नहीं होता है. अतः हे बेटी ! उसे तू छोड दे ।
भाषार्य - बेटी ! नेमी को तू अपना पति क्यों मानकर उनके विरह में दुःखित बन रही है. शास्त्रोक्तविधि के अनुसार जिसके साथ सप्तपदी हो जाती हैसात फेरे पड़ जाते हैं. वहीं उसका वर होता है ऐसा तो तेरा कुछ हुआ नहीं है. रही कितनेक पूर्वभवों में उनकी पत्नी होने की बात सो वह इस भव में कार्यकारी नहीं हो सकती । अतः यह पूर्वभवीय अनुराग तुम छोड़ो और पूर्व की तरह स्वस्थचित्त होकर घर में रहो ।
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पंचों की साक्षी में जिसके सात हुए हों फेरे साथ धार्मिक विधि से मंडप नीचे जिसने पकड़ा होवे हाथ जीवन साथी वही कहाता । वहीं सुपति पद का भागी प्राणनाथ होता है वो ही । तद्भव का वो ही रागी ऐसी आगम की शिक्षा को बेटी ! क्यों तू भूल रही नो भव के साथी को अपना स्वामी गिन क्यों कूल रही वर्तमान के इस जीवन में भूतकाल का वह जीवन fभन्न भिन्न होने के कारण उपादेय होता नहि वो जन ।। ६६ ।।