Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 94
________________ वचनदूतम् जाते ! जातं समुचितमिदं गानामि मुक्ता त्यक्तोढा चेज्जगति जनता भाग्यहीनां वदेत्त्वाम् श्रुत्वा ते तन्निगदितवचो मानसं बैकृतं स्यात् दग्धे क्षारप्रपतनवत्तत् हार्दिक शं न दद्यात् ।।७।। अग्नय-अर्थ-(जाते! ) हे बेटी (यत् अनूढा मुक्ता असि इदं समुचित जातम्) जो तुझे नेमि ने बिना विवाही छोड़ दिया है सो यह उन्होंने तेरे हित में बहुत उचिल-अचला किया है (चेत् ऊहा त्यक्ता) यदि वे विवाह करके तुझे छोड़ देते तो (जगति जनता त्वां भाग्यहीनां वदेव) संसार में जनता तुझे भाग्यहीन-मभागिनी कहती और (तस्निगदितवचः श्रुत्वा ते मानसं कृतं स्यास्) उसके कहे हुए उन वचनों को सुनकर तेरा मन अत्यन्त विकृति युक्त हो जाता और (दग्धे क्षारप्रपतनवत् तत् हार्दिक शं न मद्यास्) जले पर नमक छिड़कने के समान वे बचन तुझे हार्दिक शांति नहीं देते। भावार्य-नेमि यदि तुझे बिना विबाही छोड़ करके चले गये हैं तो उन्होंने तेरे साय भलाई ही की है. यदि वे विवाह करके तुझे छोड़ देते तो जगत तुझे अभागिनी कहता और इससे तेरा दुःख जले पर नमक छिड़कने के समान विगुणित बनकर एक पल भी तुझे शान्ति नही लेने देता। बिना विवाही छोड़ तुझे जो नैमि द्वार से लौट गये अनुचित हुअा बता क्या, तुझको उचित राह पर लगा गये वैवाहिक संबंध जोड़कर जो तुझ को वे तज देते तो अभागिनी की उपाधि से तुझे सभी कोसा करते उनके ताने सुन सुन करके देरा मन दुःम्बित होता जले हुए पर नमक छिड़कने के सम दूना दुग्न बोता ।।७।। वाम्दानानो भवति रमणः कोऽपि कस्याश्च वाले ! एतज्ज्ञात्वा मनसि न कदा शोकवार्ता तदीया । श्रानेतन्या, यदि स गतवान् गच्स्तु वा यथेच्छम् तस्मै मुक्त्वा परिणयविधि गच्छते का स्पहा ते ।।७।।

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