Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 70
________________ वचनदूतम् सा स्वनामस्मरणसुधया सिक्तगात्रा सजीवा, किन्तु स्वान्ते बिरहसपनरात्मनिष्ठत्व-शून्या । नत्त त्वद् या मवनसदृशं काड, क्षतेऽन्यं पुमांसम्, संरक्ष्याऽतो भवति भवता नो खलपेक्षणीया ॥४॥ प्रन्यय-अर्थ-हे नाय ! ( त्वन्नामस्मरणसुधया सिक्तगात्रा ) आपके नाम के स्मरणरूप अमृत से उसका शरीर सिञ्चत होने से वह यद्यपि प्राण सहित है-मरी नहीं है (किन्तु) परन्तु ( स्थान्ते विरहतपनैः प्रात्मनिष्टत्वशून्या) फिर भी वह मन में अपने आपको मरी हुई-निर्जीव हुई-सी मान रही है—मैं सजीव हूं ऐसा नहीं समझ रही है । और (या) जो (त्वत् ऋते) आपके सिवाय ( मबनसदृशं अन्यं पुमांसं नो काङ्क्षते) मदन के जैसे किसी अन्य पुरुष की आकांक्षा नहीं कर रही है । ( अतः) इसलिये (भवता) आपके द्वारा बह ( संरक्ष्या ) रक्षा करने के योग्य है ( उपेक्षणीया नो) उपेक्षा करने के योग्य नहीं है । भावार्ष-हे नाथ ! बह आपका नाम स्मरण करती रहती है. इसी कारण वह अभी तक जीवित है, नहीं तो कभी की वह आपके वियोग में मृत्यु को प्राप्त हो जाती, आपके प्रति उसकी इतनी अधिक श्रद्धा है कि वह आपके सिवाय कामदेव जैसे सुन्दर मन्य किसी भी पुरुष को नहीं चाहती है, अतः जैसे भी हो पाप उसकी रक्षा करें, उपेक्षा न करें। त्व नामस्मृत्यनुपम सुधा से प्रभो ! गात्र उस्का, पूरा पूरा बिलकुल हुअा है सना, सो इसी सेहै वो जिन्दा, पर विरह से नाथ ! हो गई मरी सी सद्यः होगी असुविरहिता देखने में लगे यों देखो तो है विधिगति विभो ! हाय ! कसी अनोखी ये जो राजीमति पर महादुःस्त्र की हैं घटाएँ आई जल्दी घिरकर, पड़े प्राण हैं संकटों में "नेमी ही हैं इस भव विर्ष नाथ मेरे सलोने होवे कोई मनसिज जिसा, मैं उसे भाई जैसामान हू, सो-इस तरह की है प्रतिज्ञा सखी की सो हे स्वामिन् ! अब उस सखी के सहारे तुम्हीं हो रक्षा के ही उचित वह है है उपेक्षा अयोग्य ॥४॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115