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वचनदूतम् स्यात् ) इसके मरण हो जाने की संभावना है । ( त्वम् एवं पातकी स्याः } जिसका तुम्हें ही पाप लगेगा ( स्वापे अपि ) निद्रा में भी (मनसि निहितम्) मन में रहे हुए { त्वाम् ) पाप से ( वक्ति ) कहती है-पूछती है कि ( माम् ) मुझे ( किम् अमुञ्चः) आपने क्यों छोड़ा है ( स्वामिन् ) हे स्वामिन् ! (अहि) बोलो-उत्तर दो. अरे ! ( कथमिव ) क्यों नहीं ( साम्प्रतम् ) इस समय माप ( मनाक भाषसे । मुझे थोड़ा सा भी उत्तर दे रहे हो ।
भावार्थ नाथ ! जब वह इस तरह की प्रशान्त स्थिति भोग रही है तो मेरी राय में उसे इस समय आपको अपना लेना चाहिये, ताकि उसे धैर्य बंध जाये. नहीं तो हो सकता है कि उसका अकाल मरण हो जावे और प्रापको दोष का पात्र बनना पड़े । प्रापके प्रति तो उसका इतना अधिक गहरा अनुराग है कि वह सोते समय में भी मन में समाये हुए मापसे यही पूछती है कि मुझे मापने क्यों छोड़ा ।
स्वामिन् ! है वो शुभम ति सती प्रापमें रक्त चित्ता,
सो त्याज्या है नहिं इस दशा में मुनो बात मेरी जो बीती सो प्रब तुम उसे भूल जाओ, सम्हारो
जाके राजीमति अति सती को, नहीं तो बनोगे जाते उस्के यदि विरह में प्राण हैं सो निमित्त
निद्रा में भी बस ! वह यही पापसे पूछती है छोडी क्यों है दयित ! तुमने प्रीति ऐसी लगाके
बोलो बोलो-त्रुप मत रहो, बात क्या थी कहो तो ।।४।।
नाय ! प्राप उसको प्रपमा कर उसके दुख को दूर करो । उसका मन तुममें विलीन है इसका भी तो ध्यान धरो पूर्व घटित घटना को विस्मृत करके उस पर दया करो प्रारण बचे जैसे भी उसके ऐसा ही अब यत्न करी यदि ऐसा नहिं पाप करेंगे तो यह निश्चय ही जानों प्रारण पखेरू उड़ जायेंगे असमय में उसके मानों क्यों निमित्त बनते हो ऐसे अशुभ कृस्य के आप अभी जनसा का मुख मन्द न होगा यही कहेंगे लोग सभी