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बचनदूतम् होती जिससे विविध दुःखों की झडी प्रात्मा में। मानों परे ! हठ नारी जो कहा है विचारो,
सोचो सबका भला अपना ही भला क्यों सँभारो ।।१२।।
कंधिकालं नियस निलये सद्गृहीभूय, पश्चात्,
राजीमत्या सह यदुपते ! निविशेषजयन्तम् । मन्यस्व एवं सुवचनमिदं स्वाग्रहं मुख्य नाथ !
मोगं भुक्तवा न भवति गृही मुक्तिपात्रं न चतत् ॥५३॥
अन्वय-अर्थ हे नाथ ! (सद्गृहीभूय) सदगृहस्थ होकर पाप (कञ्चित्वालम्) कुछ समय तक ( निलये निवस ) घर पर रहो फिर ( यदुपते ) हे यदुपते ! प्राप (राजीमत्या मह) राजीमती के साथ (ऊर्जयन्तं निविशेः) इसी गिरनार पर भाजाना । (इदं सुवचनं मन्यस्व) आप मेरी इस बात को मानो (नाथ ! स्वाग्रहं मुडच) नाथ ! अाप प्राग्रह को छोड़ो, ( एतत् न ) ऐसा नहीं है कि (भोगमुक्त्वा) भोगों को भोग कर ( गृही मुक्तिपात्रं न भवति ) गृहस्थ मुक्ति का पात्र नहीं होता है ।
भावार्य--- हे नाभ ! भाप मेरी बात मानो और अपने आग्रह को छोड़ो पहिले आप कुछ समय तक सदगृहस्थ बनकर घर पर रहो बाद में राजीमती के साथ ही इसी गिरनार पर्वत पर आकर तपस्या करना । भौगों को भोगने के बाद भी गृहस्थ मुक्ति का पात्र बना रहता है ! -
है राजुल के नाथ ! रहो कुछ दिन तक घर में मत जामो घर छोड़ अभी इस नई उमर में
राजुल के ही साथ साथ रह कर व्रत पालो सदगृहस्थ बन संपम-दम-का मार्ग संभालो चारित' सुस्थिर बनें, राजमति के संग तब ही
धरो दिगम्बर वेष बनो निग्रंथ स्वयं ही (१) भोग मुक्त्वा न पुनरिदं मुक्तिपात्रं भवेत्रो ।।