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वचनदूतम्
आली के ही भवन, पश्चात् साधना रक्त होना ||६० ॥
अन्या काचित् तत्सखी इत्थं गदति
दोलारूढा नवयुवतयस्तारतारस्वरे,
गास्यन्ति त्वं विकलह्वयाः श्रोष्यसीह प्रयीतिम् लक्ष्यीकृत्य स्वरूपतिमनोवृत्तिमन्यत्र सत
मासेऽस्मिंस्तां कथमिह सुभीः स्या उपालम्भपूर्णाम् ॥ ६१ ॥ ।
अन्वय- श्रयं --- (दशेलारूढाः) भूलों पर भूलती हुई ( नवयुवतयः) तरुण स्त्रियां ( श्रस्मिन् मासे ) इस महिने में (स्वकपतिमनोवृत्तिम्) प्रपने २ पतियों की मनोवृतिको जो कि (अन्यत्र सक्ताम् ) अन्य स्त्रियों में यासक्त हो रही है (लक्ष्यीकृत्य ) लक्ष्य करके ( विकलहृदया) बिकल हृदय होकर ( तारतारस्वरेण ) जोर जोर से (उपलम्मपूर्ण प्रीतिम् ) उलाहनों से भरे हुए गीतों को ( गायन्ति ) जब गायी एवं सांस और वहां उन्हें सुनेंगे ( कथं सुधीः स्याः) तो आपकी
बुद्धि ठिकाने कैसे रहेगी ।
भावार्थ - हे नाथ ! नगर की नवोढाएं इस महिने में बञ्चलचित्तवाली होकर झूला झूलती हुई बड़े जोर २ से ऐसे गीत कि जिनमें अपने पतियों की अन्यत्र श्रासक्त मनोवृत्ति को उलाहना दिया गया है गावेंगी और उन्हें आप सुनेंगे, तो श्रापकी बुद्धि सुस्थिर कैसे रहेगी। अतः ध्यान की सिद्धि के लिये श्राप सखी के भवन में पधारें
भूलेंगी जब नवयुवतियां गायेंगी गीत नाना
ऊंचे ऊंचे स्वरसहित हो, आपके कान में बेआवेंगे, तब सुथिर कैसे आपका चित्त होगा
होंगे उनमें उस प्रिय सजन को उपालम्भ भारी जिनका अन्तःकरण रत हैं छोड़ के स्वप्रिया को
परनारी में, उचित है सो सद्म जावें सखी के कानों में तब यह ध्वनि नहीं प्रापके में पड़ेगी
होगी नहिं तव चित्त विकलता घ्यान सुस्थिर जमेगा || ६१ ॥ | अन्या काचिदित्थं पृच्छति -