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वचनदूतम् उक्त नालं परभविदुषस्ते पुरस्ताद, परं त्वं
स्वीयावास्याद्वदसि न मनागुत्तरं याच्यमानः पृच्छामस्स्वा वयमतिजडा ज्ञातपूर्व त्वयंतत्
तरिक भूत्वा स्वमिह सुवरो बन्धुभिः सामागाः ॥६२॥
अन्वय-पथं—(परमविदुषः ते पुरस्तात् उक्तेन प्रलम्) हे नाथ ! प्राप परमबिद्वान्-प्रदधि, मनःपर्य ज्ञान के धारी हो. प्रतः अब आपके समक्ष हम क्या कहें। इतना ही कहना काफी है । (उसरं याच्यमानः) हम प्रापसे जो कहा गया है केवल उसी के उत्तर की याचना कर रहे हैं. (परम्) परन्तु (स्त्रम्) प्राप (स्वीपात् प्रास्यान्) अपने मुख से (मनाक्) थोड़ा सा भी ( न वदसि) उत्तर नहीं दे रहे हैं. अनः { प्रतिजडाः) प्रत्यन्त मन्दबुद्धिवाले हम (स्वाम् पृच्छामः) आपसे पूछते हैं कि विया एतत् आतपूर्वम्) प्राप तो पहिले से यह सब जानते ही थे ( तत्किम् ) तो फिर क्यों (त्वम् इह) आप यहां (सुबरी मूत्त्वां) अच्छे वर-दूल्हा होकर ( बन्धुभिः सार्धम् ) बन्धुनों के साथ (आगा:) प्राये ।
भावार्थ -- हे नाथ आप तो अवधिज्ञानशाली थे। प्रतः पापसे कुछ भी छिपा नहीं था, फिर भी हम अज्ञानी होने के कारण पाप से यह पूछ रहे हैं कि जो ये घटना घटी है वह जब पहिले से ही प्रापको बात थी तो फिर दूल्हा बनकर प्राप यहां बरात लेकर क्यों प्राये ?
स्वामिन् ! थे तो तुम जनम मे ही अवधिबोधशाली
फिर क्यों ऐसी अघट घटना आप द्वारा घटी ये सोचा होता यदि प्रथम मे भूल ऐसी न होती
हैं अज्ञानी हम अन्न कहें आपसे क्या, कहा जो उसका भी तो तुम तनिक भी नाथ ! उत्तर न देते
हो-सी हम तो दस अव यही अापसे पूछते हैं ये घटना तो जब अवधि से आपको ज्ञात ही, थी।
तो क्यों ऐसी बहुत भारी प्राप से भूल हुइ जो