Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 89
________________ NA वचनदूतम् स्वाभिप्रायं तदुदितफथं तं निषेध व पश्चात् ध्यानारुढ झविचलित धियं नेमिनाथं निरीक्ष्य । सख्यो बान्ये सहवयजना बान्धवा राजमस्याः प्रत्यायुत्य स्वभवनमिताः शोकसंतप्तचित्ताः ।।६४।। अन्क्य-मर्थ-(सदुक्तिकार्य स्वाभिप्रायं तं (पति) निवेद्य) राजीमति की कथा वाले अपने २ अभिप्राय को (तं "प्रति") नेमिनाथ से (निवेद्य) कह करके (एव) ही (पश्चात) बाद में ( अविचलितधियम् ) प्रत्युत्तर नहीं देने वाले ऐसे ( नेमिनायम् ) नेमिनाथ को ( ध्यानारूढम् ) ध्यान में मग्न (निरीक्ष्य ) देखकर ( राजीमस्याः । राजीमती की (सल्याः) सखियां (अन्येबान्धवाः) अन्य बन्धुवर्ग (वा) तथा (महृदबजनाः शोकसंतप्तचित्ताः) सहृदय जन शोक से संतप्त चित्त होकर के (प्रत्यावृत्त्य) वहां से लौट कर (स्वभवनं इताः) अपने २ भयन में गये। भावार्थ- इस प्रकार से अपना २ अभिप्राय राजुल की सखियों ने एवं अन्य बंधुजन आदिकों ने नेमिनाथ से कहा, पर नेमिनाथ ने उन्हें कुछ भी उत्तर नहीं दिया. धर्मध्यान में निमग्न उन्हें देखकर वे सबके सब वहां से वापिस होकर अपने २ भवन में आ गये । राजुल की सस्त्रियों ने एवं बन्धुजनों ने मिल करके राजुल की सब व्यथा-कथा को कहा नेमि से ढट करके सुन करके भी नमि न बोले स्रोले मोंठ न दो तक भी ध्यान मग्न वे अविचल मन ही बैठे रहे स्थिरासन ही सब कुछ उत्तर मिला नहीं तो वे सब के सब ही व्हां से लौट आये वापिस निज धर को होकर अतिभारी मन से ।। ६४1 स्वस्मिन् धैर्य वढतरमनाः स्वाभ्ययं सावधानः हर्षे शोके परिभवपदे निष्कलङ्काङ्कचित्तः वीरंमन्या अपि च पुरुषा यत्र कामेन वधास्तस्यां नायर्या मदनविजयी संवतो नेमिनाथः ॥६५॥ अन्त में वे सब यो विचारते हैं - अन्य प्रध-(अयं स्वामी ये स्त्रामी (स्वस्मिन् धैर्य) अपने धैर्य में (दृढतर मनाः सावधानः ) इतरमन वाले हैं और सावधान है ! हर्षे शोके परिभवपदे निरुकल

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