Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 82
________________ वचनद्भुतम् ( क्षितिभूति ) इस पहाड़ पर ( यारिबिन्दूस्करो त्याम् ) पानी की बिन्दुओं से उत्पन्न हुई पीडा को ( रविमुषि अस्मिन् प्रावृषि) सूर्य को ढक देने वाले इस अर्षाकाल में जो कि ( क्षोभया) क्षोम को उत्पन्न करने से ( युक्त ) सहित है. एवं (मनल वियुते ) अग्नि से भी विहीन है ( कयं ) ( वोढासि ) सहन करोगे. ( तस्याः सद्म प्रमाहि ) इसलिये श्राप उसके घर जायें । कैसे ७२ विशेषार्थ - देखो प्रभु -सावन का तो यह महिना है और आपका शरीर वस्त्र विहीन है. वर्षा के साथ २ जब झा बायु का प्रकोप होगा तो श्रापका शरीर उन ठंडी २ जलबिन्दुग्रों को कैसे सहन करेगा. सुखा ईंधन यहां मिलेगा नहीं कि जिसे जलाकर भाप शीत निवारण कर सकें । अतः उत्तम यही है, कि इस समय श्राप मेरी सखी के भवन पर ही खलकर विराजें । सावन का है समय, बरसा मूसलाधार होगी, साधन भी तो कुछ नहि प्रभो ! पास में आपके है । होगा कैसे सहन तुम से कष्ट बरसात का थे, स्वामिन्! भाषवन भी तो जोर जब २ करेगा । कैसे होगा सहन उसका वेग तब चंड ठंडा, मेघों से भी गगनतल में सूर्य प्रावृत रहेगा । बाधा होगी नहि तनिक भी शीत की दूर, सोचो, सूखा ईंधन जब नहि यहां तापने को मिलेगा कैसे होगी प्रकट तन में उष्णता नाथ ! सोचो बाधाओं से बचकर प्रभो ! इष्ट है जो तपस्या तो है ये ही उचित प्रधुता आपको श्राप जायें बाधाओं से रहित सजनी के सदन में खुशी से ।। ७५ ।। काचिदमुना प्रकारेण स्वामिप्रायं ब्रूते विद्यन्तं स्तनितमुखरं दर्दुरारावदुष्टम् 19 कादम्बिन्याऽऽकुलित निखिलप्राशिचक्रं विषाढ्यम् श्यालयः कृमिकुलशतैः संपरीतं विभाथ्य मासं ह्येवं त्यज गिरिवरं स तस्याः प्रयाहि ॥ ५८ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115