________________
वचनदूतम् मन्मय-अर्थ-" हे नाथ ! ( विद्य द्वन्तम् ) इस सावन के महीने में पाकाश में बिजलियां चमकेंगी (स्तनितमुखरम् ) मेषों की गड़गड़ाहट होगी ( दद्रावदुष्टम् ) मेंढकों को चारों प्रोर टर्र टर्र कर्णकटुक प्राबाज़ होगी ( कादम्बिन्याकुलितनिखिलप्राणिपक्रम् ) मेघमाला प्रत्येक प्राणी को भाकुल म्याकुल करंगी ( श्यालः च्यालः कृमिकुलशतः ) श्यालों व्यालों एवं सैकडों कृमियों से भूमि व्याप्न रहेगी. सो ( एवं मासम् विभाव्य) इस प्रकार इस महिने का विचार कर ( गिरिवरं त्यज ) आप इस गिरि को छोड़ दें और ( तस्याः सब प्रयाहि ) सखी के भवन में पधारें।
भावार्थ-सावन का हे नाथ ! यह महिना चल रहा है-इसमें बिजलियां चमकेंगी, मेवों की गड़गड़ाहट भी होगी, मेंडक भी सब पोर बोलेंगे बरसात के कारण प्रत्येक प्राणी माकुल व्याकुल दिखाई देगा. अतः आपसे मेरी यही प्रार्थना है कि आप इस गिरि को छोड़कर निर्विघ्न रूप से धर्मध्यान करने के निमित्त सखी के भवन में पधारें।
सावन का है समय इसमें नाथ ! सौदामनीयां,
चमकेंगी जब सधन नभ में और आकाश में भी होगा भारी गर्जन, तुम्हें तब प्रभो ! भय लगेगा
पानी पानी सब तरफ ही जब भरा ही दिखेगा तो जानोगे फिर किधर को, पाप कुछ तो विचारो
श्यालों, व्यालों, कृमिकुलशतों से मही व्याप्त होगी तो बोलो तो क्यों कर विभो ! ध्यान में चित जमेगा ____ अच्छा तो है वस अब यही पाप ऐसे समय में
जावें राजीमति-भवन में छोड़ के नाथ ! गिरि को ॥५८।। पश्चादागता द्रवितान्तःकरणा काचित् सखी संदेशम् श्रावयति तस्याः
स्वामिन् ! देहस्तव विवसनो वर्ततेऽतः कथं स्वम्,
मेधेभ्य स्तानविरलगतीनिर्गतान वारिमिनून सावश्यायान् कमलमसृरणः शक्ष्यति प्राषषल्यान्
मुक्त्वा साधो ! गिरिवरभुवं साम्प्रतं सौधमेहि ॥५६॥