________________
वचनदूतम् यह शरीर ( देवमुद्रातिशायी ) देवों के शरीर को भी तिरस्कृत करता है. उनके शरीरसे भी बढ़कर है । ( वैभव अनरूपं मस्ति) बंभव भी प्रापका कम नहीं हैं ( चित्तालादी परममहिमोपेतशक्तिः ) समस्त जीवों के चित्त को लुभाने वाला मौर परममहिमा को गरिमा से विदि भक्ति से संपन ( भाष: ) आपका प्रभाव है तथा वह ( सर्वः मान्यः ) समस्त जीवों की शिरोधार्य एवं ( भुवनविदितः ) त्रिभुवन विदित है. ऐसी स्थिति में ( तपोभिः किन्नु साध्यम् ) प्रब और क्या तपस्या से भाप प्राप्त करना चाहते हैं ।
भावार्थ- हे त्रिभुवनपते ! जब कि प्रापके पास किसी भी वस्तु को कमी महीं है. आपका परिकर सब से बढचढ कर है. देवों की देह से भी उत्तम भापका शरीर है. वैभव की कमी नहीं, प्रभाद भी आपका प्रसाधारण है. तो फिर पाप हमें बत्तानो कि आप तपस्या करके और कौनसी प्रब वस्तु प्राप्त करना चाह रहे हो ।
सर्वोत्तम है परिकर प्रभो ! देह भी आपकी है,
देवों से भी अधिक उत्तम, और है आपका येवैभव भारी-कमी कुछ भी वस्तु की है न कोई
चित्तालादी परममहिमोपेत सामर्थ्यवाला सर्वप्राणी-महित ऐसा है अनोखा प्रभाव
स्वामिन् ! इससे अधिक अब तुम और क्या चाहते हो जिसके खातिर कठिनतर ये पादरी है तपस्या
मानों नेमे ! उठ घर चलो धैर्य सबको बँधायो ।। ५६।। अन्या काचित्तरसखो कथयति
इत्यं वाञ्छा श्रमणवर ! याऽभून्मदीवान हेतुः
निस्संगस्त्वं क्षितिभृति कथं वारिबिन्दूस्करोस्थाम् पोडा हा ! प्राषि रविमुषि क्षोभकृ झंझयाऽस्मिन्
युक्त बोढास्पनलवियुते सद्भ तस्याः प्रयाहि ॥५॥
अम्यय-अर्थ - ( भ्रमणवर ) हे श्रमणोत्तम ! ( इत्थं मदीया या वाञ्छा ) इस प्रकार के जो मेरी भाषना ( अभृत् ) हुई है सो ( अत्र हेतुः ) इसके होने में कारण है। और वह कारण ऐसा है कि ( त्वं निस्संगः ) पाप संग-परियइ-से रहित हो. ग्राः