Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 80
________________ वचनदूतम् भी बताती है कि वह इस प्रकार से स्वस्थचित्त होगी ! प्राप यहां से उसके घर पर जावें, और सर्बप्रथम उसे प्रनुराग से देखें, बाद में प्राप उसकी उससे कुशलता पूछे भौर पूछकर फिर उसके मस्तक पर हाथ फेरें। स्वामिन् ! शोभा अब जगत में आपकी यों बढ़ेगी कोई भी तो नहिं घर सकेगा तुम्हें नाम नाथ ! हो जावेगी मम वह सखी स्वस्थ भी जो बनी है अस्वस्था-है बस इक यही नाथ ! इसका उपाय जैसे, हो वो दुख विरहिता में उसे हूँ बताती जावें पहले महल भीतर आप उसके, यहां से देखें उसको नयनभरके बाद में पाप पूछे हो तो अच्छी तरह तुम क्यों सोच मेरा करो हो पाशा मेरी सजन बनने की तजो पो हमें दो-- प्राज्ञा दीक्षा ग्रहण करने की खुशी से दुखी क्यों-- होती, साथी नहिं जगत में कोई होता जनम का छोड़ो छोड़ो बिलकुल लगा मोह ये पूर्व प्रव का ऐसा स्वामिन् ! कह कर उसे प्राप संबोध देना प्रो माथे पं कर धर विदा साथ ही मांग लेना हो जावेगी बह नियम से स्वस्थचित्ता सलोनी मा जाना फिर मुद्रितचित हो आप स्वामिन् ! यहीं पै ।।५५।। काचिरसखी तस्मिन्नेव समये घक्तीत्थम् सर्वोत्कृष्टस्तव परिकरो देवमुद्रातिशायो, देहस्तेऽयं त्रिभुवनपते ! वैभवं चास्त्यनत्पम चित्तालाबी परममहिमोपेतशक्तिः प्रभावः सन्यिो भुवन विवितः किन्नु साध्यं तपोभिः ॥५६॥ अन्वय-अर्य--( त्रिभुवनपते ) हे त्रिभुवन के पति । ( तव परिकरः ) पाएका परिकर ( सर्वोत्कृष्टः ) संसार में सब से उत्सम है ( ते अयं देहः ) प्रापका यह

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