________________
वचनदूतम्
करो समस्या नाथ ! इसी गिरि पर फिर दोनों ऐसे होगा शान्त सखी का स्यान्त सलोनो मानो मेरी बात तो यह प्राग्रह दुखकर परिचित होकर भोग छोड़ना होता सुखकर परम्परा से गृही व्रती बनकर होता है मुक्तिपात्र निःशल्य शास्त्र ऐसा कहता है ।। ५३ ।।
साधोश्चित्ते क्वचिदपि कदाप्यस्ति न वैधवत्तिः,
अद्वैतात्मा भवति स यतः शत्रुमित्रे समानः । नोचेन्नासौ गहितमनाः स्वानुनको जलुब्धः
सिद्ध र्धाम अजति न सकः स्वान्य कारुण्यहोनः ।।५।।
अन्वय अर्थ --हे नाथ ! ( साधोः चित्ते ) साधु के चित्त में (क्वचिदपि कदापि ) किसी भी समय में कभी भी { द्वे प्रवृत्तिः न भवति) वधवृत्ति नहीं होती है ( यतः ) क्योंकि (स) वह ( अद्वैतात्मा भवति । प्रहन स्वभाव वाला होता है. इसीलिवे ( शत्रुमित्र समानः ) शत्रु और मित्र उसकी दृष्टि में समान होते हैं। ( नो चैत ) यदि ऐसी दृष्टिवाला ( असो ) वह ( न ) नहीं है तो वह माधु नहीं है ( गहितमनाः ) किन्तु निदनीय विचार वाला ( स्वादुभक्ष्ये प्रलुब्धः ) यह सुस्वादुभोजन में प्रलुब्ध हुआ असाघु ही है 1 मौर ऐसा ( सकः ) वह प्रसाधु ( स्वान्यकारुष्य हीनः) अपनी और पर की दया से रहित हुप्रा (सिद्ध धाम ) मुक्तिस्थान में ( न ब्रजति ) नहीं पहुंचता है ।
भावार्थ—साधु कभी भी किसी भी जगह निज पर के भेद से विहीन होकर समदृष्टि बाला ही होता है । यदि बह ऐसी प्रवृत्ति वाला नहीं है तो वह साधु नहीं किन्तु भक्ष्य पदार्थ की लोलुपता वाला असा ही है. यह कभी भी संसार से पार नहीं हो सकता है।
स्वामिन् ! होता मुनिमन सदा एकसीवृत्तिवाला,
होता किञ्चित् नहि विषमता का अधिष्ठान उसमें ये है मेरा प्रियवर सखा ये न मेरा सखा है