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वचनदूतम्
लेता है, तब (दुःखमा
कृति पर
एतत्सनम्) उसके निवास भवन पर ( अधुना ) इस समय (गन्तव्यम्) आपको जाना चाहिये, (स्त्वां दृष्ट्वा ) तुम्हें देखकर (सा) उसे ( मनसि ) मन में (अनूनां समताम् धारयिष्यति ) बहुत अधिक समता आ जावेगी (नूनम् ) यह तो निश्चित है कि (कष्टापतितमविनाम्) कष्ट में पड़े हुए प्राणियों के ( अ ) अन्त में (साधवः शरण्याः) साधुजन ही रक्षक होते हैं ।
भावार्थ - हे नाथ ! यदि आपके दर्शन पाकर सखी का क्षुब्ध हुझा मन शांति लाभ कर लेता है और उसमें समता श्रा जाती है तो आपको उसके निवास भवन पर जो कि दुःखित जनों से भरा हुआ है अवश्य जाना चाहिये, क्योंकि कष्ट में पड़े हुए मानव के रक्षक अन्त में साधुजन ही तो होते हैं ।
जो थी स्वामिन् ! तब हितरता नाथ ! छोड़ी उसे क्यों ? क्यों ये ऐसी दुखद घटना आप द्वारा घंटी है ? है वो साध्वी इस तरह की आपकी वृत्ति से ही -
क्षुब्धस्वान्ता इस समय में, सो प्रभो ! आपसे हैऐसी अर्जी - कि यदि उसका क्षुब्धस्वान्त प्रशान्त
हो जाता है-तव दरश से तो पधारें सखी के प्रासादों में सकल जिनमें बंधु दुःखी बने हैं
देखेगी वो जब प्रभु ! तुम्हें तो भगेगी अशान्ति जागेगी मधुर उसके चित्त में शान्ति शान्ति
होते कष्टापतितजन के कष्टहन्ता सुसन्त ||
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जो थी शुभचिन्तक सदैव से जिसने अपना तुमको ही, सब कुछ समझा था स्वामिन्! क्यों छोड़ दिया है उसको हो विना विचारे किये कार्य से व्यर्थ कष्ट में डाल दिया
नाथ ! आपने उस अबला को असमय में जो त्याग दिया
श्रम कर्तव्य यही कहता है कम से कम उसको तो दो अपने दर्शन समता घर कर, ममता तज, करुरणा युत हो ऐसा करने से उसका मन शान्तभाव से युत होगा श्रीकंप हो करके तुमको विविध दुआएं ही देगा