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वचनदूतम्
हैं अपराधी नेमि,-अतः मत बनों आप इसके भागी इसाई यही शुभंकर नमीम हामी रागी पराकाष्ठासीत मोह है तुम पर उसका नाथ ! सुनो दे उलाहना सुपने में वो तुम्हें मनाती नाथ ! गुतो कहती है बस ! यही कि सुमने मेरा क्यों परिहार किया यदि ऐसा ही करना था क्यों मेरे मन में वास किया कारण बिना बताये स्वामिन् ! मन में से नहिं जा सकते बोलो-कुछ तो कहो-हृदय-पन l यों ही क्यों मुझ को तजते ।। ८६
उद्वाहे मे मगगरणवष: स्याक्तिीशोक्तिमात्रात
स्वं मां मुक्त्वा व्रतसमितिवान् हन्त ! जातोऽसि साघुः पृच्छामि स्वां मनुजकरुणा रूपकारुण्यहीना
चेदस्तीत्थं मनसि वव कि मानवे श्रेष्ठतोता ॥५०॥ अन्वय-अर्थ-( ईधा) हे नाथ ! ( मे उद्वाहे ) मेरे विवाह में ( मृगगणवधः स्यात् ) मृगपशुओं का वध होगा ( इति उक्तिमात्रात् । इस प्रकार के कहने मात्र से ( जम् ) अापने ( माम् ) मुझे छोड़ दिया और छोड़कर ( हन) बड़े हर्ष की बात है कि माप ( व्रतसमितिवान् ) व्रत और समितियों की आराधना करने वाल ( सावुः जातः असि ) साधु हो गये ( "तहि" ) तो मैं' (स्वाम् पृच्छामि ) प्रापसे पूछती हूँ कि ( मनुजकासा ) मानबदया ( रूमकारुपहीना ) पशुमों पर की गई दया से हीन है ? ( चेद इत्यम् अस्ति ) याद इस प्रकार से है तो ( यद ) कहो (मानवे श्रेष्ठता कि उक्ता) मनुष्यों में श्रेष्ठता क्यों कही गई है ?
भावार्थ-हे नाथ ! प्रापने ऐसा सुनकर कि "इस विवाह में मृगादि मक प्राणियों का वध होगा'' यदि मुझे छोड़ दिया है और ये दिगम्बरी दीक्षा धारण करली है तो मैं आपसे यह पूछती हु कि क्या मनुष्य-दया से पाशु-दया बड़ी है ? यदि है तो फिर मनुष्य में श्रेष्ठता क्यों कही गई है ? उत्तर दीजियदेखो राजीमति ! इन बंधे दीन प्यारे मगों की,
होगी हत्या इस प्रणय के सूत्र में बन्धने से , सो छोड़ा है परिणय, सुनो नाथ ! ये छम ही था,
क्योंकि स्वामिन् ! मगहनन का था न कोई इरादा । कोई का भी, चिन समझ के, क्यों मुझे बीच में ही