Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 74
________________ वचनदूतम् छोड़ा, मोड़ा बदन मझसे क्यों, कहो क्या करू मैं जाऊ काहां ! शरण किसकी, कौन मेरा यहाँ है साथी, साथी तुम जनम के थे अकेले, कहो तो मेरी नैया तुम बिन विभो ! पार कैसे लगेगी, सोचो-बोलो, चुप मत रहो, नाथ ! बोलो कहो तो तिर्यञ्चों में इस तरह की सत्कृपा की अपेक्षा प्रोछी है क्या मनज करुणा, जो मुझे छोड़ दी है, हां, ऐसा है यदि तुम कहो तो बतायो मझे ये, शास्त्रों में है कथन गरुनों ने भला क्यों किया यों "होती है ये मनु जतन की प्राप्ति पुण्योदयेन," मेरे परिणय बँधन से इन घिरे हुए पशुओं का नाश । राजुल ! होता, तो मैं कैसे इनका लग्न सकता था त्रास सो हे नाथ ! नहीं कुछ भी था यह तो केवल छलभर था तुम्हें विरागी करने को, यह रचा गया आडम्बर था मेरी पाशा की श्वासों को इकदम हाय ! कुचलने को चक्र चलाया गया नाथ ! ये मम सुहाग-सुख दलने को नाथ ! पूछती हूं मैं तुमसे, है पशुकरुणा से ओछी मानवतनधारी की फरुणा? तो यह बात भूठ सोची क्योंकि शास्त्र मानव सुयोनि को सर्वोत्तम बतलाता है मानव के प्रति मानव को उपग्रह का पाठ पढ़ाता है मानवतन मौलिकनिधि जग में बड़े पुण्य से मिलता है मुक्ति-महल में जाने का पथ शुद्ध यहीं से चलता है अतः अन्य गतियों से यह गति बड़ी अनर्घ्य बतायी है पशुमों पर तो दया करी, पर मुझ पर दया न आवी है ।।५।। क्षुब्ध शान्तं भवति यदि ते वर्शनात्स्वान्तमस्याः गन्तव्यं तत्सबनमधुना दुःखिभिः समाढ्यम् दृष्ट्या सा स्वां मनसि समतां धारयिष्यत्यननां ननं कष्टापतितयिनां साधयोऽन्ते शरप्याः ॥५१॥ अन्वय-अर्थ-हे नाथ ! ( यदि ते दर्शनात् ) यदि आपके दर्शन से ( क्षुब्ध अस्याः स्वान्तम् ) क्षुब्ध इस मेरी सखी का मन (शान्तं भवति) शान्ति को प्राप्त कर

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