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वचनदूतम् श्यामा श्यामा विरह विकला दुःखदावाग्मिदग्या,
तन्वी तन्वी शिथिलगममा मन्दमन्वप्रजल्पा । खिमा खिन्ना पति वदनात कि स्वयाह प्रमुक्ता,
गस्वा शीघ्र कथयतु भवान् कारणं धर्जनस्य ॥४७॥ अन्वय-प्रर्य हे नाथ ! यद्यपि वह (श्यामा) यौवनवती है (विरहनिकला ) फिर भी बिरह से विकल, और ( दुःखदावाग्निदग्धा ) दुःस्वरूपी दावानल से दग्ध होने के कारण ( श्यामा ) काली हो गई है। ( तन्वी सन्धी) उसकी शारीरिक स्थिति इतनी अधिक कमजोर हो गई है ( शिथिलगमना कि बह ठीक तरह से चल फिर भी नहीं सकती है । (मन्दमन्वप्रजल्पा ) बोलती है तो बहुत ही धीमे स्वर में बोलती है । ( जिम्नाखिला ) अत्यन्त दुःखित हुई वह (किं स्वया अहम् प्रमुक्ता ) "तुमने मुझे क्या त्याग दिया है" ( वदनात् वहति । मुख से यही कहती है । अतः (भवान्) पाप (शीघ्रम् गत्वा) जल्दी से जल्दी जाकर ( बर्बनस्य कारणम् वथवतु) उसे छोड़ने का कारगा बतलाभो।
भावार्थ-हे नाथ ! आपके विरह जन्य दुःख की अधिकता के कारण वह नाली दिखने लगी हैं । कमजोर वह इतनी ज्यादा हो गई हैं कि उसे चलने फिरने में भी कष्ट होता है, बोलते समय उसकी आवाज स्पष्ट नहीं निकलती है। अत्यन विकल बनी हुई सिर्फ वह यही कहती है फि "विना कारण तुमने मुझे क्यों सजा" सो माप यहां से जाकर उसे छोड़ने का कारण बतावें ।
श्यामा श्यामा शिथिलगमना दुःखदावाग्निदग्या तन्वी तन्वो विरह-विकला मन्दमन्दप्रजल्पा खिन्नाखिन्ना वह बस यही बोलती है कि क्यों हेस्वामिन् ! त्यागा त्रुटि बिन मुझे दोष मेरा हुआ क्या ? जल्दी जाके अब तुम उसे त्यागने का निमित्त जैसे भी हो समय तप का नाथ ! थोड़ा बचा के संबोधो-तो इस तरह से नाथ ! वो स्वस्थचित्ता हो जावेगी, दुखित-दुख की है दवा एक ये ही ।।४।। विरह-दुःख ने मेरी प्राली कर दी काली काली है चिन्ताओं ने मथ मथ करके कृशशरीर कर डाली है विरहयदि उसके तन मन में प्रतिक्षरण जलती रहती है, उसकी भीषण ज्वाला से वह झुलसीझुलसी रहती है । खेद खिन्न हो कहती है वह "कारण विना पिया ने क्यों त्यागा मुझे" बतायो जाकर प्रिये ! त्याग का कारण यों 11I