Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 62
________________ ननादूरम कहती है वह एक बात यह "छोड मुझे दे चले गये पर मेरे मन से वे अबतक नहीं गये तो क्यों न गये ? जाना था तो हिलमिल करके जास' कुछ तो कह जाते, नहिं पाते तो नहि पाते पर कुछ तो धैर्य बंधा जात जाने वाले को सखि ! जग में हट से कोई न रोक सका गर्म लोह को मरम न नोहा जग में अबतक काट सका हा, ठंडी पैनी छनी ही जैसे उसे काट देनी सैसे मैं भी शीतल निजवचनों से उन्हें डाट लती ऐसी ऐसी बातें कहती यह, भोजन पानी तक भी ग्रहण न मनमाना करती है। क्षरा २ अकुलानी रहती कहती है-उन बिन मैं जैसी दुःखी हूं मुझ बिन वे होंगे. कहां बटते होंगे वे अरू क्या खाते पीते होंगे ।। ४१।। द्रष्ट्वा तस्या विलपनपरां सामवस्था वयस्याः, मुग्धे ! मैवं कुरु किमिति ते विस्मृता सा पापि । नारी रम्या भवति च यया बोधयन्तीत्यमेतत सोदव्यं ते पतिविरह धैर्यमाधाय दुःखम् ॥४२॥ प्रथम अर्थ हे नाथ ! जब उसकी (वयस्याः) सखियां (विनफ्नपरांताम्। रोने धोने में ही तत्पर बनी हुई (तस्याः अवस्याम्) उसकी दशा को देखती हैं- तो (द्रप्ट्वा ) देखकर उसे (इत्यम् ) इस प्रकार से समझाती हैं-(मुग्धे ! ) हे मुग्धे ! (एवं मा कुक) तू ऐसा मत कर (किमिति ते सा त्रपा अपि विस्भृता) क्या तूने बह लज्जा भी भुला दी है कि (मया) जिससे (नारी रम्या भवति) नारी की शोभा होती है । प्रतः (पति-विरहज एतत् दुःखम्) पतिविरह से उत्पन्न हुआ यह दुख (धैर्यम् प्राधाय) धैर्य धारण कर (ते सोढव्यम्) तुझे सहन करना चाहिये। रोने में ही निरत उसकी देखके दुर्दशा को, दुःखी होती सवय सस्त्रियां, यों उसे बोध देती। मुग्धे ! चिन्ताव्यथितचित हो क्यों दुखी हो रही हो, नारीभूषा तज मत प्रपा, नेमि की क्यों कृपा नू

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