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वचनदूतम हो जाती है, चलकर अतः आप सद्बोध देव
मेरी प्यारी उस सजनि को आपकी जो प्रिया थी ।। ४४।। नाथ ! नगर की नववधुएँ जब उसको यो समझाती हैं । गई वस्तु की चिन्ता छोडो निता पैन चुगती है। चिन्ता को कहते हैं ज्ञानी बड़ी चिता से भी बदतर चिता भस्म करती अजीव को यह सजीव को यह चितधर छोड़ो चिन्ता, धरो धर्य को अब मन में, तुम सहन करोस्वामी के वैराग्यजन्य इस दुख को, समताभाच धरो, जो कुछ हुप्रा भूल जावो तुम पागे क्या करना सोस्रो इस अमूल्य मानवजीवन को पर घिन्ता से मत दोचो ऐसी मंजुल मोटी वाणी से जब वे समझाती हैं नहीं समझती प्रत्युत वह तो रो रोकर गिर जाती हैछिन्नमूल व्रतती के जैसी--, नब म सब घबड़ाती हैं
ऐसी निकट दशा में भी क्यों तुम्हें दया नहीं आती है ।।४।। सखी नेमि प्रति तत्प्रतिबोधनोपायं प्रकटयति - गत्वा दोष्णा विरहमलिनं तन्मुख क्षालयित्वा,
तोयेन त्वं तवनुमुलुक: सतसं पाययित्वा कृत्वाऽऽश्वस्तां कुशलगदनापृच्छनायं विशिष्ट
वक्तु धीरः स्तनितवचनर्मानिनी प्रक्रमेयाः ।।४।। अन्धय-अर्थ-हे नाथ ! (त्वं) प्राप (गत्वा) यहां से जावें और जाकर के (तोयेन) शीतल जल में (विरमलिनम्) विरह में मलिन हुए (नामुखम्) उसके मुख को धोत्रे (क्षालयित्वा) धोकर फिर आप (तदनु) बाद में (चुलुकः) अपनी चुल्लमों से (सदस पायित्वा) उसे सुन्दर रस पिलावे. पिला करके (अाश्वस्ताम् वस्त्रा) उसे प्राश्वस्त करें-और आश्वस्त हो जाने पर (कुशलगदनापुच्छनाय : विशिष्ट स्तनितम्बचनैः) फिर प्राप कुशल कहने और पुछने आदि,श्राप विशिष्ट हृदयहारी वचनों से (धीरः) धीरज के साथ (मानिनी वक्तुम् प्रक्रमेथाः) उस मानिनी को समझायें ।
भावार्य हे नाथ ! मैं भापको उस अपनी टेक पर पड़ी हुई सखी को समझाने की प्रक्रिया बतलाती हूं-प्राप यहाँ में जाकर मवप्रथम निमल शीतल जल से