Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 64
________________ ५८ वचनदूतम भाषार्थ- हे नाथ ! यद्यपि तत्री राजुल ने इस ममय संब से मोह ममना छोड़ दी है, पर आपसे नहीं छोड़ी है । हम सत्र तरह गे उसे समझाने बुझाते हैं पर उसके चित्त में एक भी बात नहीं जमनी, वह जो एक ही रट लगाये रहती है कि हे नाथ ! म कहां हो? इसलिये हमारी तो प्रापसे प्रार्थना एक यही है कि कुछ समय के लिये आप तपःसाधना से विराम लेवार उसे समझाने 1 पश्चात् यहां आकर सर्व हितीि तपस्या में लवलीन हो जाते। होड़ा स्वामिन् ! सब कुछ सखी ने तुम्हें पै न छोड़ा मोहाधीना बन र तुम्हें चित्त में है बिठाया आ आ आके निशदिन उसे सर्व ही बान्धवादि प्यारे बोधप्रदवचन से खूब संबोधते हैं तो भी हो हो वह अनमनी बोलती बोल ऐसे हो जाता है सुनकर जिन्हें चित्त में क्षोभ भारी छोडा है क्यों ? तजकर लिया शाल का क्मों सहारा ___ क्या था मेरा प्रबाट करते दोष यों छोड़ देना . शोभा देता ? महि वह उन्हे" प्रार्थना है अतः ये स्वामिन् ! जल्दी चलकर उसे आप संबोध दोगे तो ही होगा सुचित उसका, है न अन्य प्रयत्न हो जावेगी वह सुचित सो बाद में श्राप व्हा ही आ जावें प्रौ तप बहु त सर्वकल्याणकारी ।।४३।। नाय ! प्रापको छोड़ सखी ने सब कुछ अपना छोड़ दिया, समझाने पर नहीं समझती ऐसा निज को बना लिया, कहती है बस ! यही कि मुझको विन कारण क्यों छोड़ा है घर को छोड़ शैल से पाकर क्यों यह नाता जोड़ा है, ऐसी व्यथाभरी जब उसकी बातें हम सब सुनती हैं, तो मन टूक टूक हो जाता तब उपाय यह सुनतीं है पाप पधारे उसके मन्दिर और उसे समझा यावें फिर प्राकर के नाथ ! यहीं पर लीन सुनप में हो जावें ॥४३||

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