Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 59
________________ वनदूतम अन्वय-अर्थ-(नाथ) हे नाथ ! (प्रसी) यह राजुल (यदा) जब (अन्नस्तापम्) अपने मनस्ताप को (प्रशमितुम्) शान्त करने के लिये (सखिभिः सार्धम्) अपनी सस्त्रियों के माथ (रम्याराम) मुन्दर-रमणीय बाग में (व्रर्जात) जाती है. -नब हिन्त) बढे दुःख की बात तो यह है कि (तत्रापि) बहां पर भी (त्वत्सान्निध्यात्) प्रापर्क पास से (सुवितशिखिनः) मुखी हुए मयूरों को (वीश्य) देखकरके (दुःखातिरेकात्} दुःख की अधिकता के कारगा (मुक्तास्यूलाः) मोतियों के जसे स्थूस (तस्याः प्रश्नुलेशाः) इसकी अांखों से प्रामू (तरुकिसलेषु) वृक्षों के पत्तों पर गिरने लगते है। भावार्य - हे नाथ ! जब राजुल अपने मानसिक संताप को दूर करने के निमित्त किसी सुन्दर उद्यान में जाती है तो वहां पर वह आपके पास से मुम्बी होकर आये हुए जो देखो हसओ रह ५५iमय सी हो जाता है कि मैं भी उनके पास गयी थी. -मैं तो मुखी होकर नहीं आई हूं | अतः ऐसे ध्यान से मोती के जमे स्थूल प्रांसू उमकी आंखों से निकल कर पत्तों पर गिर पड़से हैं, इस प्रकार राग में जाने पर भी उसमें दुःख की अधिकता ही बढ़ती है, वहां पर भी उसे चैन नही मिलती। चिन-प्रशान्ति के शमन हेतु जब वह उपबन में जाती है सखियों के सँग, फिर भी उसके मन में शांति न पाती है प्रत्युत दूना बढ़ जाता है उसका मन संताप तभी निकट माप के होकर पायें सुखित देखती शिखी जभी मैं भी पास गई थी उनके दुःखित होकर ही प्राई तो क्या मैं पशुओं से भी हूं, ओछी कृपा न घरमायो ? इस विचार के आते ही बस उसकी प्राग्वें भर पानी और बृक्ष के पत्तों पर वे अश्रुकणों को बरसाती ॥३९॥ तत्सान्त्वना दातुं स्वसणीवचनं राजपुत्री निषेधति-- कंजेष्वंग, हरिणनयने नेत्रसाम्यं विभोम्त्वं मास्यच्छायां शशिभति शरत्पौर्णमास्या, तिरेफेकेशान् कृष्णान्, क्षितिभूति धृति, स्पष्टमीक्षस्व, साह हसकस्मिन् क्वचिदपि न मरस्यामिसादृश्यमस्ति ॥४०॥

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