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धनबूतम् ऐगा (जनमुखरवः) मनुष्यों के द्वारा किया गया कोलाहल (प्रधादि) मैंने सुना । (इत्यम् जाते) ऐसी स्थिति हो जाने पर (क्द) है सखि ! तुम्हीं कहो (यंपन्या कथ भवेबम्) मैं धैर्यधग्पा-धर्य से धन्य-धीरज धारण करने वाली कैसे होती-कैसे धर्य धरती।
भावार्थ-हे सखि ! प्राणनाथ के गले में वर माला डालने के लिये ज्यों ही मैं उसे लेकर राजमहल से नीचे उतरी कि इनने में मैंने जनता के मुख से सुना कि नेमिनाथ तो वैवाहिक मांगलिक भाभूषणों को उतार कर और कंकरण को फेंक कर यहां से वापिस लौट गये हैं। तब कहीं सखि ! एसी हालत में मैं धैर्य कसे घरती?
ज्यों ही आयी भवन पर स माल्य ले हाथ में मैं
नीचे, त्यों ही जनरव सुना--नेमि देखो चले गये। छोड़े सर्वाभरण पहिरे और तोड़ा उन्होंने,
जाते जाते मरिणखचित को कंकणं भी सलोना । बोलो प्यारी परि सखिजनो ! धैर्य कसे धरु में,
मेरा प्यारा जब छिन गया हाथ-पाया खिलौना ।।३।।
बरमाला ले भवन में से प्राइ ज्यों ही सखी में, डालूगी अब प्रिय-पति गले में इसे प्रेम से में। खारे पायी जनरव सुना-"नेमि यहां से चले गये", सोड़ा कंक ग, पटक सगरे भूषणों को मही पर । विधि ने जिसका इस तरह से हाय ! सर्वस्व लढा,
कसे धीरज वह घर सके हे सखीमो ! बतायो ॥३॥ काचित् मेमि प्रायति
तस्संदेशं यरहमगवं चान्यवृत्तं तदीयम्,
श्रुत्वा प्रेष्या स्वकुसलमयो नाच | वार्ता स्वपापि । भौतिजस्तः प्रखरमतिभिरक्तमेतत्तवाहित
कान्सोवन्तः सुहपगतः संगमात् किञ्चिदूनः ॥३६॥