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वचनदूतम् __ भावार्य-सखियो ! इस संसार में मेरी जैसी दुःखिया महिला और कौन होगी कि जिसे भर विवाह में बिना कारण पति ने छोड़ दिया हो । बारात लेकर वे प्राये तो सही, पर महल के दरवाजे से ही के लौट गये, सो न वे मुझे देख सके प्रोर न मैं ही उन्हें देख सकी, यह मेरे कितने अधिक दुर्भाग्य का जीता जागता
मेरी जैसी दुखित महिला और कोई न होगी,
मत नही दम जिसे व्याह में छोड़ दी हो। द्वारे प्राये पर नहिं रुके है यही कर्मलीला,
देखा मैंने तब नहिं उन्हें, औ उन्होंने मुझे भी ॥३४।।
भर विवाह में जिसने अपनी पली को ही छोड़ दियाहोवे-, ऐसी घटना से सखि ! घड़के किसका नहीं हिया, मैं कितनी भमागिनी दुखिनी इस घटना की लक्ष्य बनी। बनी-वनी पर रही अनबनी लक्ष्य धनी की अन्य बनी, द्वारे पाये पर म रुके वे सरा--भर भी नहि खड़े रहे। सजे सजाये ठाट निराले सन के सब ही पड़े रहे, तका न उनने मुझे, न मैंने उन्हें तका, क्या मैं कहती। कैसे अपने मन की बातें उन्हें खोल कर समझाती ॥३४||
कंठे क्षेप्तु लजमहमिमा यावावाय सोधात्,
मायातायो जनमुखरवोऽश्रावि नेमिर्गतोऽस्मात् । त्यवरवा सर्वाभरणमुचितं ककरणं त्रोदायित्वा,
इत्थं जाते सखि ! बब कर्ष धैर्यषन्या भवेयम् ॥३५॥
अन्वय अयं हे (सखि) सखि ! (इमाम स्वत्रम्) इस मासा को (कण्ठे क्षेप्तुम्) उनके कण्ठ में प्रक्षिप्त करने के लिये (मादाय) लेकर (सौधात्) महल से (यावत्) जितने में (प्रधः चोभायाता) मैं न पायी कि इतने में (उचितम् सर्वाभरणम्) "उचित समस्त प्राभूसगों को (मुक्रया) उतार कर और (कङ्कणम् बोटमित्या) कंकरण को तोड़कर (अस्मात्) इस स्थान से---राजवार से—(नेमिः गतः) नेमिनाथ चले गये"