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वचनदूतम्
पत्रा-क्षरण के क्षरा में कुछ से कुछ हो गया । नाथ द्वार पर भाये - एक मेकिण्ड भी उनके पास जाकर मैं खड़ी तक नहीं हो पाई, स्वप्न में भी जिसके घटित होने की माम्भावना नहीं थी वह तो हो गया और जो होना था वह नहीं हुआ।
देखो-देखो विधिविलसता ने करी हाय ! मेरी
कसी जल्दी इस तरह की दुर्दशा, नया कहूँ में 1 द्वारे प्राये पर न उनके पास में बैठ पायी,
छाया भी तो नहि पड़ सकी नाथ की दृष्टि की ही। माथे पै ही यदि पड़ गया नाथ का हाथ होता,
तो भी लेती कर सबर में हाय ! दुःखी न होती सोचा था जो वह नहि हुना वो हसा जो न मोचा ।।३।1
देला - मेरे इस सुहाग को विधि ने कसा. दग्ध कियाबिरहानल में.. इतनी जल्दी, नहीं पिया का प्यार दिया । रूदा बह यो क्यों मुझ से मेरा सब कुछ सूट सिया, मृझ विरहिणी करके उसने अपना क्या कस्याग किया।
मोचा था जो, . नहीं हुआ वह, हुआ नहीं जो मोचा था ।
मादृषकान्या भवति महिला दुःखिनो या स्त्रमा,
त्यक्ता तावत्परिणयविनिनिदान पुरस्तात् । दृष्टो द्रष्टा न. खलु स मया तेन बाहं न साक्षात्,
प्रायातोऽपि क्षण इव गतः सपनो द्वारदेशात् ।।३४॥
अन्वय अर्थ. -हे सखियो ! (या स्वभा परिणयविधेः तावत्पुरस्तान्। जिस प्राणनाथ ने विबाह के पहिले ही (निनिदानं त्यक्ता) बिना कारण के छोर दिया है। ऐसी (माह अन्या) मेरी जैसी दूसरी (का) कौन (दुःखिनी महिला) दुःग्विया महिला (भवति) होगी ? (मायातः अपि) बे माये तो, फिर भी (मपनः द्वारदेशात) महल के दरवाजे मे (क्षरण इव गतः) क्षण की तरह चले गये। प्रत्तः (माक्षास् सः मया न दृष्ट.) उन्हें मैंने नहीं देखा और (तेन प्रहं च न द्रष्टा) उन्होंने मुझ नहीं देखा ।