Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 51
________________ वचनदूतम् आलोयों से समयसमये जो कहीं थीं व्यथाएं दुःखी होके रजमति सती की सभी यों सुनाई ।।३१।। रामुल द्वारा प्रेषित ऐसा सब संदेशा कहकरके, फिर वह ही नगी नेहिले स्पषित हृदय प्रति हो करके । नाथ ! सुनो यो समय समय पर कह सखियां से कहती है, क्योंकि सुनाने से भी दुख की ज्याला तीन न जलती है ॥३१॥ नाथेनाहं मतकघटबहरतो विप्रमुक्ता, यं बध्या हृषि सखि ! कर्म दोषयेयं कयं स्वाम् । पश्यन्त्या मे क्षण इव चिरापोषिताशा विनष्टा, शुष्काः प्राणा अतिरपि गता प्रारणमाये प्रयाते ॥३२॥ प्रश्वय-प्र-(सखि) हे सखि ! (नाधेन) प्राणनाथ ने (महम्) मुझे (मृतकघटवत्) मुर्दे के घड़ा के समान (दूरतः) दूर से ही (विप्रभुक्ता) छोड़ दिया है । मो भब (हृदि) हृदय में (कथम्) कैसे (पर्य) धर्य को (दध्याम्) यह ौर (कयम्) कैसे (स्वाम्) अपने आपको-जी को- (बोधयम) समझाऊँ ? (चिरात्) चिरकास से (पोषिता में प्राणा) पोषी गई मेरी सब प्राशाएं--कामनाएँ-(पश्यन्त्या) मेरे देखते देखते ही रक्षण इव) एक श्रण की तरह (प्राणनाथे प्रयाते) प्राणनाथ के चले जाने पर (दिनप्टा) नष्ट हो गई है, (प्राणाः शुष्काः) प्राण शुष्क हो गये हैं और (धतिरपि गता) घयं भी छुट गया है। भावार्य हे ससिजनो! जब मुझे मेरे प्राणनाथ ने ही श्मशानपतिन घड़ा के जैसा दूर से छोड़ दिमा है-तब मैं कैसे तो धैर्य धरू और कैसे अपने आप को समझाऊं। देखते देखते ही प्राणनाथ के चले जाने पर तो मेरा धर्य अट गया, सक भाशाएं नष्ट हो गई और मेरे प्राण तक भी सूक गये। प्रेतस्थानस्थित्तघटसमा मैं विमुक्ता हुई हूं स्वामी-द्वारा, सस्सि ! अब कही धैर्य कैसे धरू में ? श्री जी को भी उन बिन कहो हाय ! कसे रमाऊं ? कैसे खाऊं किसविध रहं क्या घरू क्या उठाऊं

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