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वचनदूतम्
स्वामी मेरे क्षणम मुझे छोड़ के हो गये हैं
न्यारे, कैसे सफल अब हा ! संचिताशा बनेंगी ? जाते ही तो धृति गल गई प्रारण भी सुक ग्ये ये,
बोलो बोलो -सजनि ! अब मैं क्या करू, क्या कहूं में ? कैसे जिन्दा जन बिन हूं और जाऊं कहां में ||३२||
मृतकथड़ा के तुल्य नाथ ने मुझे दूर से छोड़ दिया, कडवे धागे के समान भव भय को नाता तोड़ दिया
कैसे धैर्य घरू है सजनी कैसे समझाऊँ खुद को कैसे चित रमाऊं कैसे और सजाऊँ इस लन को चिरपोषित प्रशाएँ मेरी सब की सब अब नष्ट हुई नष्ट हुए ये प्राण नाथ के जाते ही कृति भ्रष्ट हुई ।। ३२ ।। सौभाग्यं मे बिरह बहने कर्मणाऽलाय वग्धम्,
पश्येतन्मे
नाहं त्वेकं क्षणमपि विभोः पार्श्वमभ्येत्य तथाँ । विधिबिल सितंयन्मयीत्थं प्रबुसम्. ध्वस्सं ध्यातं व्रतमुपगतं कल्पितं यश्न चित्ते ॥ ३३॥
अन्वय अर्थ है सखियों ! (कर्मण) प्रशुभ कर्म ने (मे सौभाग्यम्) मेरा सौभाग्य-मुहाग- ( प्रन्हाय ) बहुत शीघ्र (विरह हने) विरह रूपी अग्नि में (दग्धम् ) भस्मसात् कर दिया है। क्योंकि (अहम् ) मैं (तु) तो (एक क्षरणम् अपि) एक क्षण भी (विभोः) प्राणनाथ के ( पार्श्वम् श्रभ्येत्य ) पास जा करके ( न तस्थौ ) नहीं बैठ सकी । ( मै एतत् ) मेरे इस (विधिबिलसितम् ) दुष्कर्म के विलास को तो ( पक्ष्य) देखो (यत्) जो ( मयि इत्यं प्रवृत्तम्) मेरे ऊपर – मेरे साथ इस प्रकार की चाल चल रहा है कि(व्यातं ध्वस्तम्) जिसका मैंने विचार किया था प्रर्थात् जो होने वाला था - बह तो हुआ नहीं और (चिते यत् न कल्पितम् ) वित्त में जिसकी कल्पना तक भी नहीं श्री जिसके होने की सम्भावना तक भी नहीं थी वह (दुतम् ) कदम (उपगतम्) हो गया है-सामने प्रकट हो गया है।
भावार्थ- सखियो ! मेरे दुष्कर्म की चेष्टा को तो देखो -- जो वह मेरे साथ कितनी मनमानी कर रहा है। मेरे सौभाग्य को वह फूटी आंखों से भी नहीं देख