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बननदूतम्
प्रचय-अर्थ - (नाथ) हे नाथ ! (तत्संदेशम्. नदीयम् अभ्यवृत्त' च) अपनी सखी का संदेश और उसके अन्य समाचार (यत् अहम् अगदम्, जो मैंने कहे हैं यापको सुनाये हैं --सो । श्रुत्वा) सुनकर (त्वया अपि) प्रापको भी (स्वकुशलमयी) अपनी कुशलता की (वार्ता) खबर (प्रेप्या) उसके पास भेजना चाहिये (प्रग्जरमतिभिः) प्रखर बुद्धिशाली (नीनिः) नीतिविशारदों ने (एतत् उक्तम्) ऐसा ही कहा है कि (कानों दन्तः) वान्ता का कान्त को नौर कान्त का कान्ता को समाचार (मुहृदुपगतः) उसकी सखी तथा मित्रजन द्वारा मिल जाता है तो वह (संगमात् किञ्चित् ऊनः) आपस में मिलने के जैसा ही होता है ।
मैंने जो ये कथित उसका नाथ ! संदेश सारा,
चारणी द्वारा प्रकटित किया आप मे, और भी जो,..दुःखों से है अतिशय भरा वृत्त उस्का सुनाया,
नीतिज्ञाता इस पर यही नीति ऐसी बताते । भेजें प्रत्युत्तर कि उसको पाप भी, क्योंवि ऐसा
होने से है स्वजन मिलने के जिसा सौख्य होता ।।३७॥
नाथ ! प्रापको उसका भेजा जो संदेश सुनाया है, और साथ में उसको दुख का जो विवरण बतलाया है। प्रतः पाप भी प्रत्युत्तर में अपना समाचार उसको --- भेजें, ऐसा होने मे ही दूरदेशमूर्ती जन वो, प्रापस के मुग्व- दुख की बातों का सुबोध होता रहता । और परस्पर मिलने जैसा मुख-दुख का अनुभव रहता। नीति विशारद ऐसा ही तो अबतक कहते पाये हैं, इसे ध्यान में रखकर सुनने हाल मुनाने आये हैं ।।३६।।
काधिविस्य धीति
त्मां संस्पृश्याशरणविकला साऽगतः शीतयात--
. लम्धाभासा भवति नितरां तान् समालिङ्गय साध्वी । एषु मवासि त्वमिति तरलाइन्वेषणे दत्तष्टिः,
स्वामप्राप्य द्विगुणितमनस्तापदग्धाऽस्ति मुग्धा ॥३७।।