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वचनदूतम्
अच्छा भी हो पर यदि पड़े लोक के वो विरुद्ध तो ऐसा भी वह नहि कहा कार्य संसेवनीय ॥ ३०॥
स्वार्थ सिद्ध करने के लालच से तुमने मुझको छोड़ा नहीं भलाई मिली बुराई से तुमने नाता जोड़ा असमय में अंगीकृत तप से नहि स्त्रसाधना सधती है, लोक विरुद्ध कार्य से स्वामिन् ! सिद्धि नहीं मिल सकती है । कार्य भले ही अच्छा हो हों लौकिकजन उसके प्रतिकूल तो असेव्य वह है उससे तो भाप श्रभी हो जावें दूर ||३०||
काचित् समये समये राजुलवेच्या सर्वां प्रत्युक्तं तद् वृत्तं निवेदयति-एवं सख्या निगदितमिमं सर्वसंदेश मुक्त्वा,
परवा से क्यथितमनसा यत्तयोक्त स्वसख्यं ।
यह विभो । त्वाम् प्रोक्तं स्वीयं वृहदपि यतो दुःखमल्पत्वमेति ॥ ३१॥
नाले काले
श्रन्वय अर्थ - ( एवं सख्या निगदितम् ) इस प्रकार अपनी सखी राजुल द्वारा कहे गये (इमं सर्व संदेशम् ) इस पूरे संदेश की (उक्त्वा) कहकर (पाते) फिर उसने कहा - (विभो ) हे नाथ ! (क्वथितमनसा तया) वेदविचित्त होकर उसने (स्वसस्यै काले काले यत् उक्तम्) अपनी सखियों से समय समय पर जो जो कहा है (तत् तन् अपि प्रहं स्वांश्रावयामि) वह सत्र भी मैं तुम्हें सुनाती हूं। (यतः) क्योंकि (बृहदपि प्रोक्त' स्वीयं दुस्खम्) दूसरों से कहा गया अपना बड़ा भी दुख: (अल्पत्वम् एति ) अल्पता को प्राप्त हो जाता है- सह्य हो जाता है ।
भावार्थ --- प्रेषित राजुल का सन्देश सुनाकर सखी पुनः श्री नेमिनाथ से कहने लगी कि हे नेमिनाथ ! समय समय पर राजुल ने जो अपनी सखियों से गदगद होकर कहा है उसे भी मैं अब आपको सुनाती हूं। क्योंकि कितना बड़ा भी असह्य दुःख क्यों न हो यदि वह दूसरो से कह दिया जाता है तो वह अल्प सह्य हो जाता है ।
जो संदेशा निजप्रिय सखी के सहारे पठाया,
श्री नेमी के निकट उसने जा उन्हें वो सुनाया ।