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वचनदूतम् अायी तो है नहि शिथिलता आपके देह में, यों---
पूङ्ग हूं मैं यह इसलिये आप हैं पर्वतस्थ हो सकती है सुलभ विपदा अद्रिवासी जनों को ।।२८।।
नाध ! आपका रत्नषय ता सर्वप्रकार से है अम्लान ? किसी तरह की बाधा भी तो तप को नहि करती है म्लान ? देह प्रापकी में तो होता नहीं शिथिलता का कुछ मान, क्योंकि आप इस समय बनें हैं ऊर्जयन्त गिरि के महमान अतः विविध बाधाएं यहां पर हो सकती हैं विपत निदान इसीलिये मैं पूछ रही हूं सुखसाता तुमसे भगवान ।।१८।।
जन्मन्यस्मिन्नशुभविधिनाऽकारि नौ विप्रयोगः,
त्वं तत्कर्मक्षपणकरणे बद्धकक्षोऽसि जासः । पूर्वोदभूतः परमिह जने त्वद्गतो रागभावोऽ
नष्टो ज्ञातु प्रभवति मनो मे प्रभो! ते प्रवृत्तिम् ॥२६॥ अन्वय-अर्थ-हे नाथ ! (अस्मिन् जन्मनि) इम जन्म में (अशुभत्रिधिना) अशुभ कर्म ने ही (नो विप्रयोगः) हम दोनों का परस्पर में वियोग (मकारिं) करवाया है । सो (त्वं तु) आपतो (तत कर्मक्षपणकरण) उस अपकारक कर्म के विध्वंस करने में (बद्धकक्षोऽसि जातः) कमर कसकर तैयार हो गये हो, (पर) परन्तु (इहजने) मेरे भीतर जो (त्वदगतः पूर्वोद्भूतः रागभाषः) पहिले भत्रों में चला पाया हुअा अापके ऊपर राग है वह (अनष्टः) अभी तक नष्ट नहीं हुआ है, सो (मे मनः) मेरा अन्तरङ्ग (ते प्रवृत्ति ज्ञातु प्रभवति) अापकी प्रवृत्ति को कुशलवार्ता को-जानने के लिये लालायित हो रहा है ।
भावार्थ . है नाथ ! अशुभ कर्म ने ही इस जन्म में मेरा और प्रापका यह विछोह करवाया है, मो आप तो उ अपकारी के विनाश करने के लिये कटिबद्ध हो ही गये हो, परन्तु मैं जो अभी तक उसके नष्ट करने में तैयार नहीं हो पा रही हूं-उसका कारण आपके प्रति लगा हुआ मेरा पूर्वसंस्कारजन्य अनुराग है जो कि अभी तक कम नहीं हो रहा है, इसीलिये मेरा मन हर तरह से आपके कुशल वृत्त जानने के लिये उत्कंठित बना रहता है।