Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 47
________________ वचनदृतम् सवा पूजा इस भय विषं, अस्तु हे कान्त ! ऐसी इच्छा मेरी अब इक यही - श्रापकर शीघ्र होवे - सम्यक् रत्नत्रय गुणनिधे ! मुक्तिलक्ष्मी - प्रदाता पूरी-पूरी सफल जिससे साधना आपकी हो ॥२७॥ नाथ ! आपको सेवा से इस भव में मंचित रहने से, मान रही हूँ मैं अपने को भाग्यहीन पापिन इससे, जो बीती सो बीत चुकी वह इसका मन कुछ सोच नहीं, हो सुकुमार पलेगा फँसे तुमसे चारित सोच यही होवे पूर्ण आपका जल्दी धृतरत्नत्रय नाथ ! यही हार्दिक पुण्य कामना मेरी मिले मुक्ति की राज्यमही ||२७|| कच्चिद्रत्नत्रयमहरहो निर्मलं वर्तते ते, निविघ्ना वा तपसि निरता तेऽस्ति कच्चिन्मुनीन्द्र | इत्येवं सा कुशलमवला पृष्छति त्वां मिरिस्थम्, पूर्वाभाष्यं सुलभविपदां प्राणिनामेतदेव || २८ ॥ अश्वम-अर्थ- हे नाथ ! (ते) आपका ( अहरहः) प्रतिदिन ( रत्नत्रयम्) रत्नत्रय (चिव निर्मलम् वर्तते) तो निर्मल हो रहा न ? ( मुनीन्द्र) हे मुनीन्द्र ! (ते तपसि निरता निर्विघ्ना अस्ति कच्चित् ) श्रापकी तपस्या में लवलीनता तो निर्विघ्न संपादित हो रही न ? (इत्येवम्) इस प्रकार से (सा अबला ) वह अबला मेरी सखी राजुल (गिरिस्यम्) पर्वत पर बैठे हुए (त्वां कुशलं पृच्छति ) धापसे कुशल पूछ रही है। क्योंकि (सुलभविपदा प्राणिनां एतत् पूर्वाभाव्यं एवं ) सुलभ विपत्ति बालों की कुशल वार्ता सर्वप्रथम पूछना उचित है । ३७ भावार्थ -- आप हे नाथ! पहाड़ पर विराजमान हैं अतः विपत्ति में पड़ जाना सुलभ और संभावित भी है इसीलिये उसने श्रापसे ऐसा पूछा है कि आपका रत्नत्रय तो निर्मलता की ओर बढ़ रहा है न ! मौर प्रापकी तपस्या में किसी प्रकार का विघ्न तो नहीं भा रहा है ? है तो रत्नत्रय मनिपते ! प्रापका वर्षमान | बाधा से तो रहित तप है मापका है तपस्विन्! |

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