Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 46
________________ वचनदूतम् गग-द्वेष से बचने को तो नाथ ! आपने मुझे तजा मुक्तिवधू की ममता से पर राग आपने कहां सजा, पर यह बात आप सच मानों रागी से यह भगती है, वैरागी पर ही वह अपने प्राण निम्बावर करती है, रागी होने से वह कैसे नाथ ! तुम्हें अपनाबेगी, ऐसी मेरी शंशा सुनापन हरू फैन हो पवियः प्रतः प्राप आकर के मेरी कम से कम इस शंका को समाधान कर करो तपस्या तज दूगी सव कांक्षा को ।।२६॥ मन्येऽहं स्वां गलितसुकृतां कुष्कृताव्यामधन्मां, सेव्यो यस्त्वं न खलु भयकाऽऽराषितो यद्भवेऽस्मिन् । स्यासे रत्नत्रयमनुपमं पूर्णमाशु प्रशुद्ध, काम्यां स्वीयां प्रकटयति सा स्वच्छु माकांक्षिणोत्पम्॥२७॥ प्रश्नय-मर्थ हे नाथ ! (अहम्) मैं (स्थाम्) अपने आपको (गलितसुकृताम्) पुण्य से सर्वथा बिहीन (दुष्कृतावघाम) एवं अत्यन्त पापिनी तथा (अवन्याम्) सर्व प्रकार से प्रयोग्य (मान्ये) मान रही हूं (मत्) क्योंकि (सेव्यः यः त्वम्) हर प्रकार से सेवनीय-आराधनीय-प्रापकी (मयका) मुझ प्रभागिन' ने (अस्मिन् भवे) इस भव में (न प्राराधितः) आराधना सेवा नहीं कर पायी है । (ते अनुपमं ररवयं आशु) पापका सर्वोत्कृष्ट रत्नत्रय परिन (प्रशुश) विशुद्ध होकर (पूर्णम्) पूर्ण हो (इत्थ) इस प्रकार की (त्वच्छुभाकांक्षिी ) आपके कल्याण की कामना करने वाली (सा) वह मेरी सखी (स्वीयां काम्यो प्रकटयति) अपनी भावना प्रकट कर रही है। भावार्य हे नाथ ! जो मैं इस मद में आराधनीय ग्रापकी आराधना करने से वंचित हो रही हूं सो मैं अपने आपको पुण्यहीन पापिष्छा मान रही हूं। मेरी अब यही आपके प्रति मंगल कामना है कि आपका रत्नत्रय निर्मल होकर शीघ्र पूर्णता को प्राप्त हो। पापिष्ठा हूं गलितसुकृता और हूं मैं अधन्या, क्योंकि स्वामिन् ! नहि कर सकी आप आराध्य की जा,

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