Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 44
________________ वचनदुतम् धातुलला विविधघटनाघट्टनेऽस्ति प्रवीरणा, द्रष्टाऽवाभ्यां स्वनधनभुवाइध्यक्षतः साम्प्रतं सा । एवं तं माटु तपसि निरतोऽभूनं बच्म्पत्र किञ्चित्, कांक्षे वाञ्छा भवतु सफला सिद्धिकान्तां लभस्व ||२५|| J अन्वय-अर्थ – हे नाथ ! (धातुः नीला) विधि - भाग्य की लीला विधान (विविघटनाने अनेक प्रकार की घटनाओं के निर्माण करने में (प्रवीणा अस्ति ) प्रवीण है (सा आवाभ्यां स्वनयनभुवा अध्यक्षतः साम्प्रतं द्रष्टा ) सो यह उसकी लीला हम दोनों ने अपनी आंखों से इस समय देखली है। (त्वं) आप (तं माष्ट्र) उस विधि को साफ करने के लिये विनष्ट करने के लिये - ( तपसि निरतः प्रभूतः ) नगस्या में लीन हुए हो, सो (अत्र ) इस विषय में (ञ्चित् न वहिम ) मैं आपसे कुछ नहीं कहती हूँ, (कांक्षे ) मैं तो यही चाहती हूं कि ( वाञ्छा ) आपकी इच्छा ( सफला भवतु ) सफल होने और आप (सिद्धिकान्तां लभस्व) सिद्धिकान्ता प्राप्त करें । भावार्थ - हे नाथ ! विधि का विधान अनेक प्रकार की अप्रत्याशित विलक्षताओं से प्रतप्रोत है, यह बात हमने और आपने आज प्रत्यक्ष देवली है । प्राप जो विधि को विनष्ट करने के लिये तपः साधना में लीन हुए हो सो यह बहुत हो सुन्दर कार्य आपने किया है, मैं तो यही प्रत्र चाहती हूं कि आपकी तपः साधना सफल होकर आपको सिद्धि कान्ता का वह पति बनाये । - आंखों से ही विधिविलसता की भलां देखली हैं वे वे बातें नहि खबर थी स्वप्न में भी जिन्हों केहो जाने की अब तुम प्रभो ! सो उसे ही मिटाने, चैरागी होकर बस यहां से गये छोड़ नाता हो जाये वो तप सफल ये ही प्रभो ! चाहती हूं मुक्तिस्त्री का झटिति जिससे आपको लाभ होने ॥ २५ ॥ विविधविधाओं से परिपूरित है-विधि का विधान न्यारा हम तुमने यह देख लिया है अपनी आंखों से साग विडंबना से सचेत हो आप हो गये वैरागी मैं इस पर क्या कहूं आपसे, क्योंकि मैं हूं मन्दभागी मेरी अन्तिम यही कामना तस्तपस्विन्! सफल बनो - आत्मसाधना से न विधि को मुक्तिस्त्री के कन्नो ||२५|| :

Loading...

Page Navigation
1 ... 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115